________________
XVI : हेम प्राकृत व्याकरण
सैकड़ों प्रत्ययों का नियमन किया है। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने हेम और वररुचि के सूत्रों की तुलना कर यह निष्कर्ष निकाला है कि हेमचन्द्र का व्याकरण अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों की अपेक्षा अधिक पूर्ण और वैज्ञानिक है। यही कारण है कि हैमव्याकरण से परवर्ती वैयाकरण भी प्रभावित होते रहे हैं। यद्यपि उनकी अपनी मौलिक उद्भावनाएं भी हैं, जो उनके व्याकरण ग्रन्थों के मूल्यांकन से स्पष्ट हो सकेंगी। हेमप्राकृत व्याकरण पर टीकाएं :
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण पर 'तत्वप्रकाशिका' नामक सुबोध-वृत्ति (बृहत्वृत्ति) भी लिखी है। मूलग्रन्थ को समझने के लिए यह वृत्ति बहुत उपयोगी है। इसमें अनेक ग्रन्थों से उदाहरण दिये गये हैं। एक लघुवृत्ति भी हेमचन्द्र ने लिखी है, जिसको 'प्रकाशिका' भी कहा गया है। यह सं १९२९ में बम्बई से प्रकाशित हुई है। हेमप्राकृतव्याकरण पर अन्य विद्वानों द्वारा भी टीकाएं लिखी गई हैं। यथा
१. द्वितीय हरिभद्रसूरि ने १५०० श्लोकप्रमाण हैमदीपिका नाम की टीका लिखी है, जिसे 'प्राकृतवृत्तिदीपिका भी __ कहा गया है। यह टीका अभी तक अनुपलब्ध है। २. जिनसागरसूरि ने ६७५० श्लोकात्मक 'दीपिका' नामक वृत्ति की रचना की है। ३. आचार्य हरिप्रभसूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण के अष्टम अध्याय में आगत उदाहरणों की व्युत्पत्ति सूत्रों के
निर्देश-पूर्वक की है। ४. वि.सं. १५६१ में उदयसौभाग्यगणि ने 'हैमप्राकृतढुढिका' नामक वृति की रचना की है। इसे 'व्युत्पत्तिदीपिका भी
कहते है। यह वृति भीमसिंह माणेक, बम्बई से प्रकाशित हुई है। ५. मलधारी उपाध्याय नरचन्द्रसूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण पर एक अवचूरि रूप ग्रन्थ की रचना की है। इसका नाम
'प्राकृतप्रबोध' है। न्यायकन्दली की टीका में राजशेखरसूरि ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। प्राकृतबोध की
पाण्डुलिपियां ला द. भारतीय विद्यामंदिर, अहमदाबाद में उपलब्ध हैं। ६. आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने हेमचन्द्र निर्मित वृत्ति को पद्य में निर्मित किया है। इसका नाम 'प्राकृतव्याकृति' है, जो
'अभिधानराजेन्द्र' कोश के प्रथम भाग के प्रारम्भ में रतलाम से वि.सं. १९७० में छपी है। ७ हेमचन्द्र द्वारा जो अपभ्रंश व्याकरण के प्रसंग में दोहे दिये गये हैं उन पर 'दोधवृत्ति' लिखी गयी है, जो
हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटन से प्रकाशित हुई है। ८. 'हैमदोधकार्य' नामक एक टीका की सूचना 'जैनग्रन्थावली' से प्राप्त होती है। उसमें (पृ. ३०१) यह भी कहा गया ___ है कि १३ पत्रों की इस टीका की एक पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है।
हैमशब्दानुशासन पर दुढिका लिखी गई है। उसके दो चरण ही अब तक उपलब्ध और प्रकाशित थे। किन्तु चारों चरणवाली की एक प्रति श्वेताम्बर तेरापंथ श्रमण ग्रन्थ भंडार, लाडनूं में उपलब्ध है। मुनि श्री नथमल ने स्वरचित 'तुलसी मन्जरी' नामक प्राकृत-व्याकरण में इस (ढुढिका वृत्ति) का विशेष रूप से उपयोग किया है। तुलसीमंजरी अपनी सुबोध शैली एव विशद विवेचन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
इस तरह प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे हैमप्राकृतव्याकरण का कई दृष्टियों से महत्व है। आर्ष प्राकृत का सर्वप्रथम उसमें उल्लेख हुआ है। प्राकृत एवं अपभ्रंश भाशा के प्रायः सभी रूपों का उसमें अनुशासन हुआ है। न केवल साहित्य में प्रयुक्त शब्द, अपितु व्यवहार में प्रयुक्त प्राकृत, अपभ्रंश एवं देशी शब्दों का नियमन हेमचन्द्र ने किया है। इस तरह एक आदर्श प्राकृत व्याकरण की रचना कर हेमचन्द्र ने परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों को भी इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रेरित किया है। परवर्ती प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों के मूल्यांकन से यह स्पष्ट होता है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण ने उन्हें कितना आधार प्रदान किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org