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'कह' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २९ में की गई।
ज्ञाता (= मुनिता) संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुणिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से 'ज्ञा' के स्थान पर ‘मुण्' आदेश, ४ - २३९ से हलन्त धातु 'मुण्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और १ - १७७ से 'त्' का लोप होकर 'मुणिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहम्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अहय' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ - १०५ से संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद् प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के योग से प्राप्त रूप ' अहम्' के स्थान पर प्राकृत में ' अहयं' आदेश की प्राप्ति होकर 'अहयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'केन' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'केण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ मूल रूप 'किम्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'क' के अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'केण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'विज्ञातम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विण्णाय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - ८९ से प्राप्त ' ण्' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विष्णाय ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २ - १९९ ।।
थू इति कुत्सायां प्रयोक्तव्यम् ॥
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 359
थू कुत्सायाम् ।। २-२००।। थू निल्लज्जो सोओ ।।
अर्थः- 'कुत्सा' अर्थात् निन्दा अर्थ में घृणा अर्थ में 'थ्रु' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-थू (निन्दनीयः) निर्लज्जः लोक:-थू निल्लज्जो लोओ अर्थात् निर्लज्ज व्यक्ति निन्दा का पात्र है। (घृणा का पात्र है)
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'थ्रु' प्राकृत भाषा का रूढ रूपक और रूढ अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'निर्लज्जः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निल्लज्जो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप, २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निल्लज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
लोओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७७ में की गई है। ।। २-२०० ।।
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रे अरे संभाषण - रतिकलहे ।। २ - २०१ ॥
अनयोरर्थयोर्यथासंख्यमेतौ प्रयोक्तव्यौ ।। रे संभाषणे । रे हिअय मडह- सरिआ ।। अरे रति-कलहे । अरे म समं मा करेसु उवहासं । ।
अर्थः- प्राकृत साहित्य में 'रे' अव्यय 'संभाषण' अर्थ में 'उद्गार प्रकट करने' अर्थ में प्रयुक्त होता है और 'अरे' अव्यय 'प्रीतिपूर्वक कलह' अर्थ में- ' रति क्रिया संबंधित कलह' अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे:- 'रे' का उदाहरण:- रे हृदय! मृतक-सरिता-रे हिअय ! महह्- सरिआ अर्थात् अरे हृदय ! अल्पजल वाली नदी - (वाक्य अपूर्ण है) । 'अरे' का उदाहरण इस प्रकार है:- अरे! मया समं मा कुरू उपहासं = अरे! मए समं मा करेसु उवहासं अर्थात् अरे ! तू मेरे साथ उपहास ( रति कलह ) मत कर।
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