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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 349 'अचिन्तितम्' संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अणचिन्तिों होता है। सूत्र संख्या २-१९० से 'नम्' अर्थकः संस्कृत स्वर 'अ के स्थान पर प्राकृत में 'अण' अव्यय की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अणचिन्तिरूप सिद्ध हो जाता है। __'अजानन्ती' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अमुणन्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से 'जान्' के स्थान पर 'मुण्' आदेश; ४-२३९ से हलन्त 'ण' में विकरण पत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१८१ से संस्कृत प्रत्यय 'शतृ' के स्थानीय 'न्त' के स्थान पर प्राकृत में भी 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप 'अमणुन्त' को स्त्रीलिंग रूप में परिणतार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से 'न्त' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ'का लोप और १-५ से प्राप्त हलन्त 'न्त्' में उक्त 'ई' प्रत्यय की संधि होकर 'अमुणन्ती' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णाई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९० से 'न' के स्थान पर 'णाई आदेश की प्राप्ति होकर णाई रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'करोमि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'करेमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से मूल संस्कृत रूप 'कर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के स्थान पर प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'करेमि' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'रोषम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रोसं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'रोसं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९०।।
माई मार्थे ॥ २-१९१॥ माइं इति मार्थे प्रयोक्तव्यम्।। माइं काहीअ रोसं। माऽकार्षीद रोषम्।
अर्थः- 'मा' अर्थात् मत' याने नकारार्थ में वा निषध-अर्थ में प्राकृत भाषा में 'माई अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- माइं काहीअ रोसं-मा अकार्षीद् रोषम् अर्थात् उसने क्रोध नहीं किया। इत्यादि।
'मा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माइं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९१ से 'मा' के स्थान पर 'माइं आदेश की प्राप्ति होकर 'माइं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'अकार्षीत' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'काहीअ होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२१४ से मूल-संस्कृत धातु रूप-कृ' अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति; और ३-१६२ से भूतकाल बोधक प्रत्यय 'हीअ' की प्राप्ति होकर 'काहीअ' रूप सिद्ध हो जाता है। रोसं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९० में की गई है।। २-१९१।।
हद्धी निर्वेदे ॥ २-१९२।। हद्धी इत्यव्ययमत एव निर्देशात् ही-धिक् शब्दादेशो वा निर्वेद प्रयोक्तव्यम्।। हद्धी हद्धी। हा धाह धाह।।
अर्थः- 'हद्धी' यह प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय ह । इसका प्रयोग 'निर्वेद' अर्थात् खिन्नता प्रकट करने में अथवा पश्चाताप पूर्ण खेद प्रकट करने में किया जाता है। संस्कृत अव्यय 'हा-धिक्' के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से इसका व्यवहार किया जाता है। जैसे:- हा-धिक्! हा-धिक्!! हद्धी! हद्धी!! पक्षान्तर में हा धाह! हा घाह!! भी होता है। मानसिक खिन्नता को प्रकट करने के लिये इसका उच्चारण दो बार होता है।
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