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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 301 की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तृतीय रूप 'तत्थं' भी सिद्ध हो जाता है।। २-१३६।। बृहस्पतो बहोभयः ।। २-१३७॥ बृहस्पति शब्दे बह इत्यस्यावयवस्य भय इत्यादेशो वा भवति।। भयस्सई भयप्फई।। पक्षे। बहस्सई। बहप्फई बहप्पई।। वा बृहस्पती (१-१३८) इति इकारे उकारे च बिहस्सई। बिहप्फई। बिहप्पई। बुहस्सई। बुहप्फई। बुहप्पई। अर्थः- संस्कत शब्द 'बहस्पति' में स्थित 'बह' शब्दावयव के स्थान पर प्राकत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'भय' ऐसे आदेश-रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:- बृहस्पतिः भयस्सई, भयप्फई और भयप्पई।। पक्षान्तर में ये तीन रूप होते हैं:- बहस्सई बहप्फई और बहप्पई।। सत्र संख्या १-१३८ से 'बहस्पति' शब्द में रहे हए 'ऋ' स्वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से कभी 'इ' स्वर की प्राप्ति होती है; तो कभी 'उ' स्वर की प्राप्ति होती है; तदनुसार बृहस्पति शब्द के छह प्राकृत रूप और हो जाते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार है:- बिहस्सई, बिहप्फई, बिहप्पई, बुहस्सई, बुहप्फई और बुहप्पई।। भयस्सई और भयप्फई रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या २-६९ में की गई है। ये दोनों रूप बारह रूपों में से क्रमशः प्रथम और द्वितीय रूप हैं। 'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका - (बारह रूपों में से तीसरा) प्राकृत-रूप 'भयप्पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१३७ से प्राप्त 'बह' शब्दावयव के स्थान पर आदेश रूप से 'भय' की प्राप्ति; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'भयप्पई रूप सिद्ध हो जाता है। 'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप -(बारह रूपों में से छठा) 'बहप्पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका 'भयप्पई के समान ही होकर 'बहप्पई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ बहस्सई और 'बहप्फई रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या २-६९ में की गई है। ये दोनों रूप बारह रूपों में से क्रमशः चौथा और पाँचवा रूप है। 'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप-(बारह रूपों में से सातवाँ) 'बिहस्सई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति; २-६९ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'स' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त 'भयप्पई रूप के समान होकर बिहस्सई रूप सिद्ध हो जाता है। 'बिहप्फई' आठवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३८ में की गई है। 'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप-(बारह रूपों में से नववाँ) 'बिहप्पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'भयप्पई रूप के समान होकर 'बिहप्पई' रूप सिद्ध हो जाता है। 'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप-(बारह रूपों में से दसवाँ)-'बुहस्सई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त बिहस्सई रूप के समान ही होकर 'बुहस्सइ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'बुहप्फई' ग्यारहवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३८ में की गई है। 'बुहप्पई बारहवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५३ में की गई है।। २-१३७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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