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300 : प्राकृत व्याकरण
'वैडूर्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वेरुलिअं' और 'वेडुज्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या-२-३३ से आदेश प्राप्त रूप है।
द्वितीय रूप-(वैडूर्यम्=) 'वेडुज्ज' में सूत्र संख्या- १-१४८ से दीर्घ 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति तथा १-८४ से दीर्घ 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' रूप आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'वेडुज्ज' सिद्ध हो जाता है।। २-१३३।।
एण्हिं एत्ताहे इदानीमः ।। २-१३४।। अस्य एतावादेशो वा भवतः।। एण्हि एत्ताहे। इआणि।।
अर्थः- संस्कृत अव्यय 'इदानीम्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'एण्हि' और 'एत्ताहे' ऐसे दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- इदानीम् = (आदेश-प्राप्त रूप)-एण्हिं और एत्ताहे तथा पक्षान्तर में-(व्याकरण-सूत्र-रूप) इआणि।।
एण्हिं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। "इदानीम्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका आदेश प्राप्त रूप 'एत्ताहे' सूत्र संख्या २-१३४ से होता है। 'इआणिं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है।। २-१३४।।
पूर्वस्य पुरिमः ।। २-१३५।। पूर्वस्य स्थाने पुरिम इत्यादेशो वा भवति।। पुरिमं पुव्वं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'पूर्व' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'पुरिम' ऐसे रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-पूर्वम् (आदेश प्राप्त रूप)-पुरिमं और पक्षान्तर में-(व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप)-पुव्व।।
'पूर्वम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पुरिम' और 'पुव्वं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'पुरिमं सूत्र संख्या २-१३५ से आदेश प्राप्त रूप है।
द्वितीय-रूप-(पूर्वम्)= 'पुव्वं' में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'र' के लोप होने के बाद 'शेष 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'पुव्वं' सिद्ध हो जाता है।। २-१३५।।
त्रस्तस्य हित्थ-तटौ।। २-१३६।। त्रस्त शब्दस्य हित्थत? इत्यादेशौ वा भवतः ।। हित्थं। तटुं तत्थं।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'त्रस्त' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'हित्थ' और 'त?' ऐसे दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- त्रस्तम् (आदेश-प्राप्त रूप)-हित्थं और तटुं तथा पक्षान्तर में-(व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप)-तत्थं।।
'त्रस्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत-रूप 'हित्थं', 'तटुं' और 'तत्थं होते हैं। इनमें प्रथम दो रूप 'हित्थं और 'तटुं' सूत्र संख्या २-१३६ से आदेश-प्राप्त रूप है। - तृतीय-रूप-(त्रस्तम्)- 'तत्थं' में सूत्र संख्या २-७९ से 'त्र' में रहे हुए 'र' का लोप; २-४५ से स्त' के स्थान पर 'थ'
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