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302 : प्राकृत व्याकरण
मलिनोभय-शुक्ति-छुप्तारब्ध-पदातेर्मइलावह-सिप्पि
छिक्काढत्त-पाइक्कं।।२-१३८।। मलिनादीनां यथासंख्यं मइलादय आदेशा वा भवन्ति।। मलिनम्। मइल मलिणं।। उभयं। अवह। उवहमित्यपि केचित्। अवहोआसं। उभयबल।। आर्षे। उभयोकाल।। शुक्तिः। सिप्पी सुत्ती।। छुप्तः। छिक्को छुत्तो।। आरब्धः। आढत्तो आरद्धो।। पदातिः। पाइक्को-पयाई।।
अर्थः- संस्कृत शब्द "मलिन, उभय, शुक्ति, छुप्त, आरब्ध और पदाति" के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से क्रम से इस प्रकार आदेश रूप होते हैं; मइल, अवह, सिप्पि, छिक्क, आढत्त और पाइक्क।। आदेश प्राप्त रूप
और व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप क्रम से इस प्रकार है:- मलिनम मइलं अथवा मलिणं।। उभयं-अवहं अथवा उभयं।। कोई-कोई वैयाकरणाचार्य 'उभयं' का प्राकृत रूप 'उवह भी मानते हैं। जैसे-उभयावकाशम् अवहोआसं पक्षान्तर में 'उभय' का उदाहरण 'उभयबल' भी होता है। आर्ष-प्राकृत में भी 'उभय' का उदाहरण 'उभयोकालं जानना। शुक्ति-सिप्पी अथवा सुत्ती।। छुप्तः छिक्को अथवा छुत्तो।। आरब्धः आढत्तो अथवा आरद्धो।। और पदाति:=पाइक्को अथवा पयाई। ___ मलिनम्:- संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मइल और मलिणं होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१३८ से 'मलिन' के स्थान पर 'मइल' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मइल रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(मलिनम् ) मलिणं में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप 'मइल' के समान ही होकर द्वितीय रूप मलिणं भी सिद्ध हो जाता है।
उभयम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप उभयं, अवहं और उवहं होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप उभयं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(उभयम्=) अवहं में सूत्र संख्या २-१३८ से 'उभय' के स्थान पर 'अवह' का आदेश और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर द्वितीय रूप अवह भी सिद्ध हो जाता है।
ततीय रूप-(अभयम) उवहं में सत्र संख्या २-१३८ की वत्ति से'उभय' के स्थान पर 'उवह रूप की आदेश-प्राप्ति: और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप उवह भी सिद्ध हो जाता है; उभयावकाशं संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप अवहोआसं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१३८ से 'अभय' के स्थान पर 'अवह रूप की आदेश प्राप्ति; १-१७२ से 'अव उपसर्ग के स्थान पर 'ओ' स्वर की प्राप्ति; १-१० से आदेश प्राप्त रूप 'अवह' में स्थित 'ह' के 'अ' को आगे 'ओ' स्वर की प्राप्ति होने से लोप; १-५ से हलन्त शेष 'ह' में पाश्र्वश्थ 'ओ' की संधि; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अवहोआसं रूप सिद्ध हो जाता है।
उभय-बलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उभयबलं होता है; इसमें सूत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उभय बलं' रूप सिद्ध हो जाता है।
उभय कालम् संस्कृत रूप है; इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'उभयोकालं होता है; इसमें सूत्र-संख्या २-१३८ की वृत्ति से उभय-काल के स्थान पर 'उभयो काल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उभयो कालं' रूप . सिद्ध हो जाता है।
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