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________________ XIV : हेम प्राकृत व्याकरण दूसरे परिच्छेद के ४७ सूत्रों में मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का विधान है तथा इसमें यह भी बताया गया है कि शब्दों के असंयुक्त व्यंजनों के स्थान पर कितने विशेष व्यंजनों का आदेश होता है । यथा - ( १ ) प के स्थान पर व - शाप - सावो ; (२) न के स्थान पर ण- वचन वअण, (३) श, ष के स्थान पर, स-शब्द = सद्दो, वृषभ-वसहो आदि। तीसरे परिच्छेद के ६६ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के लोप, विकास एंव परिवर्तनों का अनुशासन है। अनुकारी, विकारी और देशज इन तीन प्रकार के शब्दों का नियमन चौथे परिच्छेद के ३३ सूत्रों में हुआ है । यथा १२वें सूत्र मोविन्दुः में कहा गया है कि अंति हलन्तम् को अनुस्वार होता है - वृक्षम् = वच्छं, भद्रम् = भदं आदि । पांचवे परिच्छेद के ४७ सूत्रों में लिंग और विभक्ति का अनुशासन दिया गया है। सर्वनाम शब्दों के रूप और उनके विभक्ति प्रत्यय छठे परिच्छेद के ६४ सूत्रों में वर्णित हैं। आगे सप्तम परिच्छेद में तिङ्न्तविधि तथा अष्टम में धात्वादेश वर्णन है। प्राकृत का धात्वादेश सम्बन्धी प्रकरण तुलनात्मक दृष्टि से विशेष महत्व का है। नवमें परिच्छेद में अव्ययों के अर्थ एवं प्रयोग दिये गये हैं। यथा- णवरः केवले ||७|| केवल अथवा एकमात्र के अर्थ में णवर शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरणार्थ - एसो णवर कन्दप्पो, एसा णवर सा रई । इत्यादि । यहाँ तक वररुचि ने सामान्य प्राकृत का अनुशासन किया है। इसके अनन्तर दसवें परिच्छेद के १४ सूत्रों में पैशाची भाषा का विधान है। १७ सूत्र वाले ग्यारहवें परिच्छेद में मागधी प्राकृत का तथा बारहवें परिच्छेद के ३२ सूत्रों में शौरसेनी प्राकृत का अनुशासन है। प्राकृत व्याकरण के गहन अध्ययन के लिए वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश एवं उसकी टीकाओं का अध्ययन नितान्त अपेक्षित है। महाराष्ट्री के साथ मागधी, पैशाची एवं शौरसेनी का इसमें विशेष विवेचन किया गया है। प्राकृतप्रकाश की इस विषयवस्तु से स्पष्ट है कि वररुचि ने विस्तार से प्राकृत भाषा के रूपों को अनुशासित किया है। चंड के प्राकृतलक्षण का प्रभाव वररुचि पर होते हुए भी कई बातों में उनमें नवीनता और मौलिकता है। सिद्धहैमशब्दानुशासन : प्राकृत व्याकरणशास्त्र को पूर्णता आचार्य हेमचन्द्र के सिद्ध हैमशब्दानुशासन से प्राप्त हुई है। प्राकृत वैयाकरणों की पूर्वी और पश्चिमी दो शाखाएं विकसित हुई हैं। पश्चिमी शाखा के प्रतिनिधि प्राकृत वैयाकरण हेमचन्द्र हैं (सन् १०८८ से ११७२ )। इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इनकी विद्वत्ता की छाप इनके इस व्याकरण ग्रन्थ पर भी है। इस व्याकरण का अनेक स्थानों से प्रकाशन हुआ है। डा. पिशेल द्वारा सम्पादित होकर यह ग्रन्थ सन् १८७७-८० के बीच दो बार प्रकाशित हुआ है। डॉ. पी. एल. वैद्य द्वारा सम्पादित होकर १९३६ में यह प्राकृत व्याकरण छपा तथा संशोधित होकर १९५८ में इसका पुनः प्रकाशन हुआ। इसके गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी अनुवाद भी निकल चुके हैं। आगमवेत्ता पूज्य प्यारचंद जी महाराज द्वारा विशद हिन्दी व्याख्या के साथ ब्यावर से प्रकाशित इस ग्रन्थ के हिन्दी संस्करण में अनेक परिशिष्ट संलग्न हैं अतः उसकी विशेष उपयोगिता सिद्ध होती है। यह ग्रन्थ बहुत दिनों से अनुपलब्ध था, जिसका प्रकाशन आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर द्वारा अब किया जा रहा है। हेमचन्द्र के इस व्याकरण ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं। प्रथम सात अध्यायों में उन्होंने संस्कृत व्याकरण का अनुशासन किया है, जिसकी संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में अलग महत्ता है। आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का निरूपण है। उसकी संक्षिप्त विषयवस्तु द्रष्टव्य है। आठवें अध्याय के प्रथम पाद में २७१ सूत्र हैं। इनमें संधि, व्यंजनान्त शब्द; अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर - व्यत्यय और व्यंजन-व्यत्यय का विवेचन किया गया है। इस पाद का प्रथम सूत्र अथ प्राकृतम् प्राकृत शब्द को स्पष्ट करते हुए यह निश्चित करता है कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के आधार पर सीखनी चाहिये । द्वितीय सूत्र बहुलम् द्वारा हेमचन्द्र ने प्राकृत के समस्त अनुशासनों को वैकल्पिक स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट है कि हेमचन्द्र ने न केवल साहित्यिक प्राकृतों को, अपितु व्यवहार की प्राकृत के रूपों को ध्यान में रखकर भी अपना व्याकरण लिखा है। इस पद के तीसरे सूत्र आर्षम् द्वारा ग्रन्थकार ने आर्षप्राकृत और सामान्य प्राकृत में भेद स्पष्ट किया है। इसके आगे के सूत्र स्वर आदि का अनुशासन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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