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हेम प्राकृत व्याकरण : XIII
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एवमेतन्मया प्रोक्तं किंचित्प्राकृतलक्षणम् ।
शेषं देशीप्रसिद्वं च ज्ञेयं विप्राः प्रयोगताः ।। प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी भरत का यह शब्दानुशासन यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु महत्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि भरत के समय में भी प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गयी थी। हो सकता है, उस समय प्राकृत का कोई प्रसिद्ध व्याकरण रहा हो अतः भरत ने केवल सामान्य नियमों का ही संकेत करना आवश्यक समझा है। भरत के ये व्याकरण के नियम प्रमुख रूप से शौरसेनी प्राकृत के लक्षणों का विधान करते हैं। चण्ड-प्राकृतलक्षण :
प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में चंडकृत प्राकृतलक्षण सर्व प्राचीन सिद्ध होता है। भूमिका आदि के साथ डा० रूडोल्फ होएनले ने सन् १८८० में बिब्लिओथिका इंडिया में कलकत्ता से इसे प्रकाशित किया था । सन् १९२९ में सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला की ओर से यह अहमदाबाद से भी प्रकाशित हुआ है। इसके पहले १९२३ में भी देवकीकान्त ने इसको कलकत्ता से प्रकाशित किया था । ग्रन्थ के प्रारम्भ में वीर (महावीर) को नमस्कार किया गया है तथा वृत्ति के उदाहरणों में अर्हन्त (सूत्र ४६ व २४) एवं जिनवर (सूत्र ४८) का उल्लेख है। इससे यह जैन कृति सिद्ध होती है। ग्रन्थकार ने वृद्धमत के आधार पर इस ग्रन्थ के निर्माण की सूचना दी है, जिसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि चण्ड के सम्मुख कोई प्राकृत व्याकरण अथवा व्याकरणात्मक मतमतान्तर थे। यद्यपि इस ग्रन्थ में रचना काल सम्बन्धी कोई संकेत नहीं है, तथापि अन्तःसाक्ष्य के आधार पर डॉ हीरालाल जैन ने इसे ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना स्वीकार किया है।
प्राकृतलक्षण में चार पाद पाये जाते हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में चंड ने प्राकृत शब्दों के तीन रूपों- तद्भव, तत्सम एवं देश्य- को सूचित किया है तथा संस्कृतवत् तीनों लिंगों और विभक्तियों का विधान किया है। तदनन्तर चौथे सूत्र में व्यत्यय का निर्देश करके प्रथमपाद के ५वें सूत्र से ३५ सूत्रों तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्ति रूपों को बताया गया है। द्वितीय पाद के २९ सूत्रों में स्वर परिवर्तन, शब्दादेश और अव्ययों का विधान है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजनों के परिवर्तनों का विधान है। प्रथम वर्ण के स्थान पर तृतीय का आदेश किया गया है। यथा
एकं > एगं, पिशाची > विसाजी, कृतं > कदं आदि । इन तीन पादों में कुल ९९ सूत्र हैं, जिनमें प्राकृत व्याकरण समाप्त किया गया है। होएनले ने इतने भाग को ही प्रामाणिक माना है। किन्तु इस ग्रन्थ की अन्य चार प्रतियों में चतुर्थपाद भी मिलता है, जिसमें केवल ४ सूत्र हैं। इनमें क्रमशः कहा गया है - १- अपभ्रंश में अधोरेफ का लोप नहीं होता, २- पैशाची में र् और स् के स्थान पर ल और न् का आदेश होता है, ३- मागधी में र् और स् के स्थान पर ल और श् का आदेश होता है तथा ४- शौरसेनी में त् के स्थान पर विकल्प से द् आदेश होता है। इस तरह ग्रन्थ के विस्तार,रचना और भाषा स्वरूप की दृष्टि से चंड का यह व्याकरण प्राचीनतम सिद्ध होता है। परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जाते हैं। हेमचन्द्र ने भी चंड से बहुत कुछ ग्रहण किया है। वररुचि-प्राकृत प्रकाश :
प्राकृत वैयाकरणों में चण्ड के बाद वररुचि प्रमुख वैयाकरण है। प्राकृतप्रकाश में वर्णित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है। अतः विद्वानों ने वररुचि को ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग का विद्वान् माना है। विक्रमादित्य के नवरत्नों में भी एक वररुचि थे। वे सम्भवतः प्राकृत प्रकाश के ही लेखक थे । छठी शताब्दी से तो प्राकृतप्रकाश पर अन्य विद्वानों ने टीकाएं लिखना प्रारम्भ कर दी थीं। अतः वररुचि ने ४-५वीं शताब्दी में अपना यह व्याकरण ग्रन्थ लिखा होगा। प्राकृतप्रकाश विषय और शैली की दृष्टि से प्राकृत का महत्वपूर्ण व्याकरण है। प्राचीन प्राकृतों के अनुशासन की दृष्टि से इसमें अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं।
प्राकृतप्रकाश में कुल बारह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के ४४ सूत्रों में स्वरविकार एंव स्वरपरिवर्तनों का निरूपण है।
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