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XII : हेम प्राकृत व्याकरण
शब्द-भण्डार को समझने के लिए विशेष महत्व है। ५. काव्यानुशासन : इस ग्रन्थ में आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यशास्त्र का स्वतन्त्र रूप से विवेचन किया है। काव्य की
परिभाषा एवं उसके भेद-प्रभेदों में कई नई स्थापनाएँ इस ग्रन्थ में की गई हैं। ६. छन्दोनुशासन : इस ग्रन्थ में छन्दशास्त्र का विस्तृत विवेचन प्राप्त है। ७. व्याश्रयमहाकाव्य : संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में निबद्ध यह ग्रन्थ आचार्य हेमचन्द्र की प्रतिभा का निकष है।
इसी ग्रन्थ का प्राकृत अंश कुमारपालचरित के नाम से प्रसिद्ध है। प्राकृत कुमारपालचरित जैन साहित्य में बहु प्रचलित ग्रन्थ है। पूर्णकलशगणि ने इस पर टीका लिखी है। परवर्ती कई ग्रन्थकारों ने इस काव्य को अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। बम्बई संस्कृत सीरीज के अन्तर्गत स. पा. पण्डित द्वारा १९०० ई. में इसका प्रथम बार सम्पादित संस्करण प्रस्तुत किया गया। १९३६ में पी एल वैद्य द्वारा इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है। इसके साथ परिशिष्ट में हेमचन्द्र-प्राकृत व्याकरण भी प्रकाशित की गई। प्रो. केशवलाल हिम्मतलाल कामदार द्वारा इस ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। हिन्दी अनुवाद के साथ कुमारपालचरित को पहली
बार श्री भगवती मुनि 'निर्मल' द्वारा प्रस्तुत किया गया है। प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ :
उपलब्ध सभी प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं। प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके ग्रन्थों का परिचय डॉ. पिशल ने अपने ग्रन्थ में दिया है। डोल्ची नित्ति ने अपनी जर्मन पुस्तक 'ले ग्रामेरिया प्राकृत' (प्राकृत के वैयाकरण) में
आलोचनात्मक शैली में प्राकृत के वैयाकरणों पर विचार किया है। इधर प्राकृत व्याकरण के बहुत से ग्रन्थ छपकर प्रकाश में भी आये हैं। उनके सम्पादकों ने भी प्राकृत वैयाकरणों पर कुछ प्रकाश डाला है। इस सब सामग्री के आधार पर प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों का परिचयात्मक मूल्यांकन हमने अन्यत्र प्रस्तुत किया है। आचार्य भरत :
प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में जिन संस्कृत आचार्यों ने अपने मत प्रकट किये हैं, इनमें भरत सर्व प्रथम हैं। प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत-सर्वस्व के प्रारम्भ में अन्य प्राचीन प्राकृत वैयाकरणों के साथ भरत को स्मरण किया है। भरत का कोई अलग प्राकृत व्याकरण नहीं मिलता है। भरतनाट्यशास्त्र के १७वें अध्याय में ६ से २३ श्लोकों में प्राकृत व्याकरण पर कुछ कहा गया है। इसके अतिरिक्त ३२वें अध्याय में प्राकृत के बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं, किन्तु उनके स्रोतों का पता नहीं चलता है। ___ डॉ. पी एल वैद्य ने त्रिविक्रम के प्राकृतशब्दानुशासन व्याकरण के १७वें परिशिष्ट में भरत के श्लोकों को संशोधि गत रूप में प्रकाशित किया है, जिनमें प्राकृत के कुछ नियम वर्णित हैं। डॉ. वैद्य ने उन नियमों को भी स्पष्ट किया है। भरत ने कहा है कि प्राकृत में कौन से स्वर एवं कितने व्यंजन नहीं पाये जाते । कुछ व्यंजनों का लोप होकर उनके केवल स्वर बचते हैं। यथा
वचति कगतदयवा लोपं, अत्थं च से वहति सरा ।
खघथधभा उण हत्तं उति अत्थं अमुंचंता ।।८॥ प्राकृत की सामान्य प्रवृत्ति का भरत ने अंकित किया है कि शकार को सकार एवं नकार का सर्वत्र णकार होता है। यथा- विष-विस, शङ्का संका आदि । इसी तरह ट ड, ठ ढ, प व, ड ल, च य, थ ध, प फ आदि परिवर्तनों के सम्बन्ध में संकेत करते हुए भरत ने उनके उदाहरण भी दिये हैं तथा श्लोक १८ से २४ तक में उन्होंने संयुक्त वर्णो के परिवर्तनों को सोदाहरण सूचित किया है और अन्त में कह दिया है कि प्राकृत के ये कुछ सामान्य लक्षण मैने कहे हैं बाकी देशी भाषा में प्रसिद्ध ही हैं, जिन्हें विद्वानों को प्रयोग द्वारा जानना चाहिये
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