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340 : प्राकृत व्याकरण
हन्दि - (पश्चात्ताप-अर्थ)- न भविष्यति भणन-शीला; सास्विद्यति हन्दि-(निश्चय अर्थ-सत्यार्थवा) तव कार्ये।। प्राकृतः- हन्दि चलणे णओ सो ण माणिओ; हन्दि हुज्ज एत्ताहे।। हन्दि न हो ही भणिरी; सा सिज्जइ हन्दि तुह कज्ज।।
हिन्दी अर्थः- खेद है कि उस (नायक) ने उस (नायिका) के पैरों में नमस्कार किया; वह झुक गया; तो भी उस (नायिका) ने उसका सम्मान नहीं किया अर्थात् वह (नायिका) नरम नहीं हुई। ज्यों की त्यों रूठी हुई ही रही। इस समय में अब क्या होगा? यह पश्चाताप की बात है कि वह (नायिका) बातचित भी नहीं करेगी एवं निश्चय ही तुम्हारे कार्य में वह नहीं पसीजेगी। 'हन्दि' अव्यय का अर्थ यह सत्य ही है' ऐसा भी होता है।
'हन्दि' प्राकृत साहित्य का रूढ अर्थक अव्यय है। अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'चरणे' संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चलणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५४ से 'र' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर उसका लोप और १-५ से प्राप्त हलन्त व्यञ्जन 'ण' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संधि होकर 'चलणे' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'नतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो' आदेश प्राप्त; 'डो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'णओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सो' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९७ में की गई है।
'न' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'ण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर 'ण' आदेश की प्राप्ति होकर 'ण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मानितः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माणिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो' आदेश; एवं प्राप्त 'डो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर 'माणिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भविष्यति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हुज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६१ से भवि के स्थान पर हु' आदेश; और ३-१७७ से भविष्यत्-काल-वाचक प्रत्यय 'ष्यति' के स्थान पर प्राकृत में 'ज्ज' आदेश की प्राप्ति होकर 'हुज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
"एताहे' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१३४ में की गई है।
'न' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'न' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' का 'ण' वैकल्पिक रूप होने से 'णत्व' का अभाव होकर 'न' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भविष्यति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'होही' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से भू-भव के स्थान पर 'हो' आदेश; ३-१७२ से संस्कृत में प्राप्त होने वाले भविष्यत्-काल-वाचक विकरण प्रत्यय 'इष्य' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' आदेश; ३-१३९ से संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय का आदेश; और १-५ की वृत्ति से एक ही पद में रहे हुए 'हि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' के साथ आगे प्राप्त प्रत्यय रूप 'इ' की संधि होने से दोनों के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'होही' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भणनशीला' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणिरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शील-धर्म-साधु अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'नशील' के स्थान पर 'इर' आदेश; १-१० से 'ण' में स्थित 'अ' स्वर का आगे प्राप्त प्रत्यय 'इर'
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