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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 339 की जा रही है इस अर्थ को बतलाने के लिये 'पुणरूत्तं' अव्यय का प्रयोग किया गया है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-पेच्छ पुणरुत्तं- (एक वारं दृष्ट्वा भूयोऽपि) वारंवारं पश्य अर्थात् (एक बार देख कर पुनः) बार बार देखो। __'अयि' संस्कृत आमंत्रणार्थक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'अई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'य' का लोप होकर 'अइ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'स्वपिति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुप्पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६४ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'व्' का लोप; २-९८ से प् के स्थान पर द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; ४-२३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'अविकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सुप्पई रूप सिद्ध हो जाता है। __'पांशुले' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पंसुलि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से 'र' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-३२ से स्त्रीलिंग वाचक शब्दों में संस्कृत प्रत्यय 'आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ला' वर्ण के स्थान पर 'ली' की प्राप्ति; और ३-४२ से आमन्त्रण अर्थ में संबोधन में दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर 'पंसुलि' रूप सिद्ध हो जाता है। निःसहै: निस्सहै संस्कृत तृतीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णीसहेहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१३ से विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप; १-९३ से विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप होने से प्राप्त 'णि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिः' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हिं' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'णीसहेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अंगैः संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अंगेहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'क' वर्गीय 'ग' वर्ण होने से 'क' वर्गीय पंचमाक्षर रूप 'ङ' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीय विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हिं' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'अंगेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। 'पुणरूत्तं प्राकृत अव्यय रूप है। रूढ़-रूप होने से इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है। ॥२-१७९।। हन्दि विषाद-विकल्प-पश्चात्ताप-निश्चय-सत्ये ।। २-१८०।। हन्दि इति विषादादिषु प्रयोक्तव्यम्। हन्दि चलणे णओ सो ण माणिओ हन्दि हुज्ज एत्ताहे। हन्दि न होही भणिरी सा सिज्जइ हन्दि तुह कज्जे।। हन्दि। सत्यमित्यर्थः।। अर्थः- 'हन्दि' प्राकृत-साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय है। जब 'विषाद' अर्थात् 'खेद' प्रकट करना हो; अथवा कोई कल्पना करनी हो; अथवा 'पश्चाताप व्यक्त करना हो; अथवा किसी प्रकार का निश्चय प्रकट करना हो; अथवा किसी प्रकार के "सत्य" की अभिव्यक्ति करनी हो तो "हन्दि" अव्यय का प्रयोग किया जाता है। प्रयुक्त "हन्दि" को देखकर प्रसंगानुसार उपरोक्त भावनाओं में से उपर्युक्त "भावना" सूचक अर्थ को समझ लेना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है: संस्कृतः- हन्दि-(विषाद-अर्थ)-चरणे नतः स न मानितः; हन्दि - (विकल्प-अर्थ)-भविष्यति इदीनाम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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