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30 : प्राकृत व्याकरण
'गृष्टिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गिंठी' और 'गिट्ठी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'गि' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट्र के स्थान पर '' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'गिंठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(गृष्टि:=) गिट्ठी में सूत्र संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट्' के स्थान पर '' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व'' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति
और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'गिट्ठी भी सिद्ध हो जाता है।
'मार्जार'-संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मंजारो' और 'मज्जारो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से 'मा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२६ से 'म' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप हलन्त 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मंजारो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(मार्जारः) मज्जारो में सूत्र संख्या १-८४ से 'मा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप हलन्त 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'मज्जारो' भी सिद्ध हो जाता है।
'वयस्यः संस्कत रूप है। इसका प्राकत रूप 'वयंसो' होता है। इसमें सत्र संख्या १-२६ से प्रथम 'य' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७८ से द्वितीय 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वयंसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मनस्वी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मणंसी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'व् का लोप; १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'मनस्विन् में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'मणंसी रूप सिद्ध हो जाता है।
'मनस्विनी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मसिणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'व्' का लोप और १-२२८ से द्वितीय 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'मणसिणी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मनः शिला' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मणसिला,' 'मणसिला', 'मणासिला' और (आर्ष-प्राकृत में) 'मणोसिला' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-११ से 'मनस्=मनः' शब्द के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मणसिला' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६ के अतिरिक्त शेष सूत्रों की प्रथम-रूप के समान ही' प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'मण-सिला' सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप में सूत्र संख्या १-४३ से प्राप्त द्वितीय रूप 'मण-सिला' में स्थित 'ण' के 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'मणा-सिला' सिद्ध हो जाता है।
चतुर्थ रूप में सूत्र संख्या १-३ से प्राप्त द्वितीय रूप 'मण-सिला' में स्थित 'ण' के 'अ' को वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति होकर चतुर्थ आर्ष रूप 'मणो-सिला' भी सिद्ध हो जाता है।
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