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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 31 'प्रतिश्रुत्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पडंसुआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'प्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२०६ से 'ति' में स्थित 'त्' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति; १-८८ से प्राप्त 'डि' में स्थित 'इ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ड' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'श्रु' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से प्राप्त 'शु' में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति और १-१५ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर स्त्रीलिंग अर्थक 'आ' की प्राप्ति होकर 'पडंसुआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'उपरि' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवरि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०८ से 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और १-२६ से अन्त्य 'रि' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'अवरि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अतिमुक्तकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अणिउँतयं', अइमुंतयं और 'अइमुत्तयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२०८ से 'ति' में स्थित 'त्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७८ से 'म्' का लोप होकर शेष रहे हुए स्वर 'उ' पर अनुनासिक की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में स्थित हलन्त 'क्' का लोप; १-१७७ से अंतिम 'क्' का लोप; १-१८० से अंतिम 'क्' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'अणिउँतयं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(अतिमुक्तकम्=) अइमुंतयं में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ति' में स्थित 'त्' का लोप; १-२६ से 'मु' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में स्थित 'क्' का लोप; १-१७७ से अतिम 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका की प्राप्ति प्रथम रूप के समान ही ३-५ और १-२३ से होकर द्वितीय रूप 'अइमुंत्तयं सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप- (अतिमुक्तकम्=) अइमुत्तयं में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ति' में स्थित 'त्' का लोप; २-७७ से 'क्त' में स्थित 'क
१९ से लोप हए'क' के पश्चात शेष रहे हए'त' को द्वित्व'त्त की प्राप्ति: १-१७७ से अतिम 'क' का लोपः १-१८० से लोप हए'क' के पश्चात शेष रहे हए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका की प्राप्ति प्रथम रूप के समान ही ३-५ और १-२३ से होकर तृतीय रूप 'अइमत्तयं सिद्ध हो जाता है। ___'देव-नाग-सुवर्ण संस्कृत वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'देव-नाग-सुवण्ण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से देव में स्थित 'व' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से अंतिम संस्कृत व्यञ्जन 'ण' में स्थित रेफ रूप हलन्त ' का लोप और २-८९ से लोप हुए 'र के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति होकर प्राकृत-गाथा-अंश 'देव-नाग-सुवण्ण' सिद्ध हो जाता है। १-२६।।
क्त्वा-स्यादेर्ण-स्वोर्वा ।।१-२७॥ क्त्वायाः स्यादीनां च यो णसूतयोरनुस्वारोन्तो वा भवति। क्त्वा।। काऊणं काउण काउआणं काउआण।। स्यादि। वच्छेणं वच्छेण। वच्छेसुंवच्छेसु।। णस्वोरितिकिम्। करि। अग्गिणो।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में संबंध भूत कृदन्त के अर्थ में क्रियाओं में क्त्वा' प्रत्यय की संयोजना होती है; इसी क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सूत्र संख्या २-१४६ से 'तूण' और 'तुआण' अथवा 'ऊण' और 'उआण' प्रत्ययों की प्राप्ति का विधान है; तदनुसार इन प्राप्तव्य प्रत्ययों में स्थित अंतिम 'ण' व्यञ्जन पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे-कृत्वा-काऊणं अथवा काऊण, और काउआणं; अथवा काउआण। इसी प्रकार से प्राकृत-भाषा में संज्ञाओं में तृतीया विभक्ति के एकवचन में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में तथा सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में क्रम से 'ण' और 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति का विधान है; तदनुसार इन प्राप्तव्य प्रत्ययों पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होती है। जैसे-वृक्षण-वच्छेणं अथवा वच्छेण; वृक्षाणाम्-वच्छाणं अथवा वच्छाण और वृक्षेषु-वच्छेसुं अथवा वच्छेसु; इत्यादि।
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