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32 : प्राकृत व्याकरण
प्रश्न:- प्राप्तव्य 'ण' और 'सु' पर ही वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- प्राप्तव्य प्रत्यय 'ण' और 'सु' के अतिरिक्त यदि अन्य प्रत्यय रहे हुए हों तो उन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का कोई विधान नहीं है; तदनुसार अन्य प्रत्ययों के संबंध में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का अभाव ही समझना चाहिये। जैसे - कृत्वा = करिअ; यह उदाहरण संबंध भूत कृदन्त का होता हुआ भी इसमें 'ण' संयुक्त प्रत्यय का अभाव है; अतएव इसमें आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का भी अभाव ही प्रदर्शित किया गया है। विभक्तिबोधक प्रत्य का उदाहरण इस प्रकार है- अग्नयः = अथवा अग्नीन अग्गिणो; इस उदाहरण में प्रथमा अथवा द्वितीया के बहुवचन का प्रदर्शक प्रत्यय संयोजित है; परन्तु इस प्रत्यय में 'ण' अथवा 'सु' का अभाव है; तदनुसार इसमें आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का भी अभाव ही प्रदर्शित किया गया है; यों 'ण' अथवा 'सु' के सद्भाव में ही इन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है; यह तात्पर्य ही इस सूत्र का है।
'कृत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप काऊणं, काऊण, काउआणं, काउआण तथा करिअ होते हैं। इनमें से प्रथम चार रूपों में सूत्र संख्या ४-२१४ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत में 'का' की प्राप्ति; २- १४६
कृदन्त 'अर्थ में संस्कृत प्रत्यय ' त्वा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तूण' और 'तूआण' के क्रमिक स्थानीय रूप 'ऊण' और 'ऊआण' प्रत्ययों की प्राप्ति; १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ऊण' और 'ऊआण' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'ण' पर वैकल्पिक रूप से आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'काऊणं', 'काऊण,' 'काऊआणं' और 'काऊआण' सिद्ध हो जाते हैं।
पांचवें रूप - (कृत्वा =) करिअ में सूत्र संख्या ४- २३४ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'कर् में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २ - १४६ से संबंध भूत कृदन्त सूचक प्रत्यय ' क्त्वा' के स्थान पर प्राकृत में ' अत्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - ११ से प्राप्त प्रत्यय ' अत्' के अन्त में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'करिअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वृक्षेण' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वच्छेणं' और 'वच्छेण' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २ - ८९ से प्राप्त 'छ्' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च्' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ -१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ 'वच्छ' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'वच्छेणं' और 'वच्छेण' सिद्ध हो जाते हैं।
'वृक्षेषु' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वच्छेसुं' और 'वच्छेसु' होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप मूल अंग की प्राप्ति उपरोक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - १५ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' के पूर्वस्थ 'वच्छ' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'वच्छेसुं' और 'वच्छेसु' सिद्ध हो जाते हैं।
'अग्नयः' और 'अग्नीन्' संस्कृत के प्रथमान्त द्वितीयान्त बहुवचन क्रमिक रूप है। इनका प्राकृत रूप 'अग्गिणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग्' की प्राप्ति; और ३- २२ से प्रथमा विभक्ति तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'जस्=अस्' और 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अग्गिणो' रूप सिद्ध हो जाता है । १-२७।।
विंशत्यादे र्लुक् ।। १-२८ ।।
विंशत्यादीनाम् अनुस्वारस्य लुग् भवति । विंशतिः । वीसा ।। त्रिंशत्। तीसा। संस्कृतम्। सक्कयं ।। संस्कारः । सक्कारो इत्यादि ।
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