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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 179 नदी संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णई और नई होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२९ से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ण' और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर गइ और नेइ दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। नेति संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप णेइ और नेइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२९ से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ण' और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर णइ और नेइ दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। न्यायः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नाओ होता है। इनमें सूत्र-संख्या २-७८ से प्रथम 'य' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'य' का भी लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नओ रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२२९।। निम्ब-नापिते-ल-णहं वा।। १-२३०॥ अनयोर्नस्य ल ण्हं इत्येतौ वा भवतः। लिम्बो निम्बो। पहाविओ नाविओ।। अर्थः-'निम्ब' शब्द में स्थित 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ल' होता है। तथा 'नापित' शब्द में स्थित 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ह' होता है। जैसे:-निम्बः लिम्बो अथवा निम्बो।। नापितः=ण्हाविओ अथवा नाविओ।। निम्बः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप लिम्बो और निम्बो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३० से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लिम्बो और निम्बो दोनों रूपों की क्रम से सिद्धि हो जाती है। नापतः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पहाविओ और नाविओ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३० से 'न' का वैकल्पिक रूप से ‘ण्ह'; १-२३० से 'प' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पहाविओ और नाविओ दोनों रूपों की क्रम से सिद्धि हो जाती है।।। १-२३०।। पो वः।। १-२३१॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेः पस्य प्रायो वो भवति।। सबहो। सावो। उवसग्गो। पईवो। कासवो। पावं। उवमा। कविला कुणवं। कलावो। कवालं महि-वालो। गो-वई। तवह। स्वरादित्येवा कम्पइ।। असंयुक्तस्येत्येव। अप्पमत्तो।। अनादेरित्येव। सुहेण पढइ।। प्राय इत्येव। कई। रिऊ।। एतेन पकारस्य प्राप्तयो र्लोप वकारयोर्यस्मिन् कृते श्रुति सुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः।। __ अर्थः-यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त (स्वर-रहित) भी हो एवं आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'प' वर्ण का प्रायः 'व' होता है। जैसेः-शपथः=सवहो।। श्रापः सावो।। उपसर्गः=उवसग्गो।। प्रदीपः पईवो।। काश्यपः= कासवो। पापम्=पावं।। उपमा-उवमा।। कपिलम् कविलं।। कुणपम्=कुणवं। कलापः =कलावो।। कपालम् कवाल।। महि-पालः महिवालो।। गोपायति गोवइ।। तपति-तवइ।। प्रश्न:-'स्वर से परे रहता हुआ हो' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'प' का 'व' नहीं होगा। जैसे:-कम्पते-कम्पइ।। इस उदहारण में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं है; हिन्तु हन्लत व्यञ्जन के परे रहा हुआ है; अतः यहां पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है; यों अन्य उदाहरणों में भी जान लेना।। प्रश्न:-'संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये किन्तु असंयुक्त याने स्वर से युक्त होना चाहिये ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण संयुक्त होगा स्वर रहित होगा-हलन्त होगा; तो उस 'प' वर्ग का 'व' नहीं होगा; जैसे-अप्रमत्तः अप्पमत्तो।। इस उदाहरण में 'प' वर्ण 'र' वर्ग में जुड़ा हुआ होकर संयुक्त है-स्वर रहित है-हलन्त है अत:यहां पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है, यही बात अन्य उदाहरणों में भी जान लेना।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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