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________________ 180: प्राकृत व्याकरण प्रश्न:-'अनादि रूप से स्थित हो; शब्द में प्रथम अक्षर रूप से स्थित नहीं हो; अर्थात् शब्द में आदि-स्थान पर स्थित नहीं हो;" ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'प' वर्ण का 'व' वर्ण नहीं होगा। जैसे:-सुखेन पठति-स इस उदाहरण में 'प' वर्ण 'पठति क्रियापद में आदि अक्षर रूप से स्थित है: अतः यहां पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है। इसी प्रकार से अन्य उदाहरणों में जान प्रश्न:-'प्रायः' अव्यय का ग्रहण क्यों किया गया है ? उत्तर:-'प्रायः अव्यय का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि किन्ही शब्दों में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप होता हो; तो भी उस 'प' वर्ण का 'व' वर्ण नहीं होता है। जैसे:-कपिः कई और रिपुः रिऊ।। इन उदहारणों में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त भी है और अनादि रूप भी है; फिर भी इन शब्दों में 'प' वर्ण का 'व' वर्ण नहीं हुआ है। यों अन्य शब्दों में भी समझ लेना चाहिये। अनेक शब्दों में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'प' का लोप होता है और अनेक शब्दों में सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' होता है। इस प्रकार 'प' वर्ण की लोप-स्थिति एवं वकार-स्थिति' दोनों अवस्थाएं है; इन दानों अवस्थाओं में से जिस अवस्था-विशेष से सुनने में आनंद आता हो; श्रुति-सुख उत्पन्न हो; उसी अवस्था का प्रयोग करना चाहिये; ऐसा सूत्र की वृत्ति में ग्रंथकार का आदेश है। जो कि ध्यान रखने के योग्य है।। सवहो और सावो रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७९ में की गई है। उपसर्गः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप उवसग्गो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; २-७९ से 'र'का लोप: २ प: २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'गग' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उवसग्गो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रदीपः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप पईवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२३१ से द्वितीय 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पईवो रूप सिद्ध हो जाता है। कासवो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४३ में की गई है। पावं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १–१७७ में की गई है। उपमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'प' का 'व' होकर उवमा रूप सिद्ध हो जाता है। कपिलम संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कविलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कविलं रूप सिद्ध हो जाता है। कुणपम् संस्कृत विशेषण रूप है इसका प्राकृत रूप कुणवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुणवं रूप सिद्ध हो जाता है। कलापः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कलावो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कलावो रूप सिद्ध हो जाता है। महीपालः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप महिवालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-४ से 'ही' में स्थित दीर्घ 'ई' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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