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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 221
'उत्सुकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उच्छुओ' और 'ऊसुओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२२ से वैकल्पिक रूप से संयुक्त व्यञ्जन 'त्स्' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उच्छुओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'ऊसुओ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-११४ में की गई है।
'उत्सवः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उच्छवा' और 'ऊसवो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२२ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' ' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'उच्छवा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ऊसवो की सिद्धि सूत्र संख्या १-८४ में की गई है। ।। २-२२।।
स्पृहायाम् ।। २-२३ ॥ स्पृहा शब्दे संयुक्तस्य छो भवति । फस्यापवादः ।। छिहा ।। बहुलाधिकारात् क्वचिदन्यदपि। निप्पिहो।।
अर्थः- स्पृहा शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। आगे सूत्र संख्या २-५३ में यह बतलाया जायेगा कि सर्व-सामान्य रूप से 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है। किन्तु इस सूत्र संख्या २-२३ से यह कहा जाता है कि स्पृहा में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'छ' होता है; अतः इस नियम को उस नियम का अपवाद माना जाय। उदाहरण इस प्रकार है:- स्पृहा छिहा।। सूत्र संख्या २-५३ के अनुसार 'स्पृहा' का प्राकृत रूप 'फिहा' होना चाहिये था; किन्तु इस नियम के अनुसार 'छिहा' हुआ है। अतः सूत्र संख्या २-२३ सूत्र संख्या २-५३ का अपवाद रूप सूत्र है। यह ध्यान में रहे। सूत्र संख्या १-२ के अनुसार बहुलाधिकार से कहीं-कहीं पर 'स्पृहा' का दूसरा रूप भी पाया है। जैसे:- निस्पृहः-निप्पिहा।। सूत्र संख्या २-२२ के अनुसार 'निस्पृहः' का प्राकृत रूप 'निछिहो' नहीं हुआ है। अतः यह रूप-भिन्नता बहुलाधिकार से जानना।।
छिहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है।
"निस्पृहः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निप्पिहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; २-८९ से' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति, १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निप्पिहा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२३ ।।
द्य-य्य-यों जः ।। २-२४ ।। एषां संयुक्तानां जो भवति ॥ छ । मज्जं । अवज्जं । वेज्जो । जुई । जोओ । य्य । जज्जो सेज्जा ॥र्य । भज्जा। चौर्य-समत्वात् भारिआ । कज्ज । वज्जं पज्जाओ। पज्जत्तं मज्जाया ॥
अर्थः- यदि किसी शब्द में 'द्य' अथवा 'य्य' अथवा 'य' रहा हुआ हो तो इन संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति होती है। 'घ' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- मद्यम्-मज्जा अवद्यम्-अवज्जो वेद्यः-वेज्जो, द्युतिः जुई। और द्योतः जोओ।। 'य्य' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- जय्यः जज्जो। शय्या सेज्जा। 'य' के उदाहरणः- भार्या-भज्जा। सूत्र संख्या २-१८७ से भार्या का भारिआ रूप भी होता है। कार्यम्=कज्जी वर्यम् वज्जी पर्यायः पज्जाओ। पर्याप्तम्-पज्जत्तं और मर्यादा मज्जाया।। इत्यादि।
'मद्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज' ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
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