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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 367 'इति' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इअ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और १-९१ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रही हुई द्वितीय 'इ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'इअ रूप सिद्ध हो जाता है। 'गुणा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है। 'ते' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'ते' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'अ' का लोप और १-५ से हलन्त 'त्' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' की सधि होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता 'च्चिअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है। 'कह' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। 'नु' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप ‘णु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'णु' रूप सिद्ध हो जाता है। 'एअं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२०९ में की गई है। 'तह' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। "तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८६ में की गई है। 'कृता' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कया' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति होकर 'कया रूप सिद्ध हो जाता है।। 'अहयं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९९ में की गई है। 'जह' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। 'कस्मै' संस्कृत चतुर्थ्यन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में विभक्ति-वाचक प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'क' रूप का सद्भाव; ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी-विभक्ति की प्राप्ति; तदनुसार ३-१० से षष्ठी-विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कस्स' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'कथयामि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'साहेमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२ से संस्कृत धातु 'कथ्' के स्थान पर 'साह्' आदेश; ४-२३९ से हलन्त धातु 'साह' में 'कथ्' धातु में प्रयुक्त विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'साहेमि' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०४।। अइ संभावने ॥ २-२०५॥ संभावने अइ इति प्रयोक्तव्यम्॥ अइ।। दिअर किं न पेच्छसि।। अर्थः- प्राकृत-साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला 'अई' अव्यय 'संभावना' अर्थ को प्रकट करता है। संभावना है। इस अर्थ को 'अइ' अव्यय व्यक्त करता है। जैसे:-अइ, देवर! किम् न पश्यसि अइ; दिअर! किं न पेच्छसि अर्थात् (मुझे ऐसी) संभावना (प्रतीत हो रही) है (कि) हे देवर! क्या तुम नहीं देखते हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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