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366 : प्राकृत व्याकरण
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'यामि' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमानकाल के एकवचन में तृतीय पुरुष में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामि रूप सिद्ध हो जाता है।
क्षेत्रम् संस्कृत द्वितीयांत रूप है। इसका प्राकृत रूप'छेत्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप; हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छेत्तं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'नाशयन्ति' संस्कृत प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नासेन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्रेरणार्थक में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नासेन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धृतिम् संस्कृत द्वितीयांत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दिहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३१ से 'वृति' के स्थान पर 'दिहि' आदेश; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'दिहि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुलकम्' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुलयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पुलयं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'वर्धयन्ति' संस्कृत प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वड्डेन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४० से संयुक्त व्यञ्जन 'ध् के स्थान पर 'द' आदेश; २-८९ से प्राप्त 'द' को द्वित्व 'ढ्ढ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्रेरणार्थक 'मे' प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति
और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वड्डेन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है। __'ददंते' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'देन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप; ३-१५८ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त 'ए' के पूर्व में स्थित 'द' के 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'द्' में आगे रहे हुए 'ए' की संधि; और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'न्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। प्रेरणार्थक में देन्ति' की साधनिका इस प्रकार भी होती है:-संस्कृत मूल धातु 'दा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर १-८४ से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्रेरणा अर्थ में प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्व में स्थित 'द' के 'अ' का लोप; १-५ से हलन्त 'द्' में 'ए' की संधि और ३-१४२ से 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'देन्ति' प्रेरणार्थक रूप सिद्ध हो जाता है।
'रणरणकम्' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रणरणय होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'रणरणयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'एण्हि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
तस्य संस्कृत षष्ठयन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप तस्स होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' - के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
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