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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 277 'स्त्रोतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-९८ से अनन्त्य व्यञ्जन 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-११ से विसर्ग रूप अन्त्य व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सोत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रेमन्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेम्म होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-९८ से अनन्त्य व्यञ्जन 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पेम्म रूप सिद्ध हो जाता है।
'जुव्वणं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५९ में की गई है।
'प्रतिस्त्रोतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पडिसोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से दोनों 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पडिसोओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'विस्त्रोतसिका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विस्सोअसिआ' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष प्रथम 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त् और 'क्' का लोप होकर 'विस्सोअसिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।।।२-९८॥
सेवादी वा ॥ २-९९।। सेवादिषु अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च द्वित्वं वा भवति।। सेव्वा सेवा।। नेड्डूं नीड। नक्खा नहा। निहित्तो निहिओ। वाहित्तो वाहिओ। माउक्कं माउआ एक्को एओ। कोउहल्लं कोउहलंवाउल्लो वाउलो। थुल्लो थोरो। हुत्तं हूदइव्वं दइव। तुण्हिक्को तुण्हिओ। मुक्को मूओ। खण्णू खाणू। थिण्णं थीण।। अनन्त्यस्य। अम्हक्केरं अम्हकेरं। तं च्चेअ तं चे। सो च्चिअ सो चि॥ सेवा। नीड। नख। निहित। व्याहृत। मृदुक। एक। कुतूहल। व्याकुल। स्थूल। हूत। देव। तूष्णीक। मूक। स्थाणु। स्त्यान। अस्मदीय चे। चि। इत्यादि।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में सेवा आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके प्राकृत रूपान्तर में कभी-कभी तो अन्त्य व्यञ्जन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व हो जाता है और कभी-कभी अनन्त्य अर्थात् मध्यस्थ व्यञ्जनों में से किसी एक व्यञ्जन का द्वित्व हो जाता है। अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन के वैकल्पिक रूप से द्वित्व होने में कोई निश्चित नियम नहीं है अतः जिस व्यञ्जन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व देखो; उसका विधान इस सूत्र के अनुसार होता है; ऐसा जान लेना चाहिये। इसमें यह एक निश्चित विधान है कि आदि व्यञ्जन का द्वित्व कभी भी नहीं होता है। इसीलिये वृत्ति में "अनादौ" पद दिया गया है। वैकल्पिक रूप से द्विर्भाव-स्थिति केवल अन्त्य व्यञ्जन की अथवा अनन्त्य याने मध्यस्थ व्यञ्जन की ही होती है। इसके लिये वृत्ति में "यथा-दर्शनम् ","अन्त्यस्य" और "अनन्त्यस्य' के साथ साथ "वा" पद भी संयोजित कर दिया गया है। ऐसी यह विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये जिन शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का वेकल्पिक रूप से द्वित्व होता है; उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-सेवा-सेव्वा अथवा सेवा।। नीडम्=नेड्डे अथवा नीड।। नखाः नक्खा अथवा नहा।। निहितः निहित्तो अथवा निहिओ।। व्याहृतः वाहित्तो अथवा वाहिओ।। म्दुकम्=माउक्कं अथवा माउ। एकःएक्को अथवा एओ।। कुतूहलम्=कोउहल्लं अथवा कोउहल।। व्याकुलः-वाउल्लो अथवा वाउलो।। स्थूलः थुल्लो अथवा थोरो। हूतम्-हुत्तं अथवा हूआं देवं-दइव्वं अथवा दइव।। तूष्णीकः-तुण्हिक्को अथवा तुण्हिओ।। मूकः-मुक्को अथवा मूओ।। स्थाणुः खण्णू अथवा खाणू और स्त्यानम् थिण्णं अथवा थीण।। इत्यादि।। जिन शब्दों के अनन्त्य व्यञ्जन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व होता है; उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- अस्मदीयम्-अम्हक्केरं अथवा अम्हके।। तत् एव-तं च्चेअ अथवा तं चे।। स एव-सो च्चिअ अथवा सो चि। इत्यादि।। सूत्र संख्या २-९८ और २-९९ में इतना अन्तर है कि पूर्व सूत्र में
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