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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 135 उतरविः संस्कृत वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप उअरवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप होकर उअ अव्यय रूप सिद्ध हो जाता है। रवी में सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्राकृत वाक्यांश उअरवी सिद्ध हो जाता है।।१-१७२।। ऊच्चोपे ।। १-१७३ ॥ उपशब्दे अदिः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ऊत् ओच्चादेशौ वा भवतः।। ऊंहसि ओहसिअं उवहसि ऊज्झाओ ओज्झाओ उवज्झाओ। ऊआसो ओआसो उववासो।। अर्थः-'उप' शब्द में आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् संपूर्ण 'उप' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'ऊ' और 'ओ' आदेश हुआ करते हैं। तदनुसार 'उप' के प्रथम रूप में 'ऊ'; द्वितीय रूप में 'ओ' और तृतीय रूप में 'उव' क्रम से, वैकल्पिक रूप से और आदेश रूप से हुआ करते हैं। जैसे-उपहसितम् ऊहसिअं, ओहसिअं और उवहसि। उपाध्यायः ऊज्झाओ, ओज्झाओ और उवज्झाओ। उपवासः ऊआसो, ओआसो और उववासो।। उपहसितम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ऊहसिअं, ओहसिहं और उवहसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ऊहसिअं में सूत्र-संख्या १-१७३ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात 'उप' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऊ' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ऊहसिअं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ओहसिअं में सूत्र-संख्या १-१७३ से वैकल्पिक रूप से 'उप' शब्दाशं के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ओहसिअं भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप उवहसि में वैकल्पिक विधान की संगति होने से सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'र' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप उवहसिअं भी सिद्ध हो जाता है। उपाध्यायः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप उज्झाओ, ओज्झाओ और उवज्झाओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप उज्झाओ में सूत्र-संख्या १-१७३ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उप' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऊ' आदेश की प्राप्ति; १-८४ 'पा' में स्थित 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से 'ध्य्' के स्थान पर 'झ' का आदेश; २-८९ से प्राप्त 'झ्' को द्वित्व झ्झ की प्राप्ति, २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' का 'ज्'; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ऊज्झाओ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ओज्झाओ में सूत्र-संख्या १-१७३ से वैकल्पिक रूप से 'उप' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ओज्झाओ सिद्ध हो जाता है। ___ तृतीय रूप उवज्झाओ में वैकल्पिक-विधान संगति होने से सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान होकर तृतीय रूप उवज्झाओ भी सिद्ध हो जाता है। __उपवासः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ऊआसो, ओवआसो और उववासो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ऊआसो में सूत्र-संख्या १-१७३ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऊ' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ 'व्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ऊआसो सिद्ध हो जाता है। __द्वितीय रूप ओआसो में सूत्र-संख्या १-१७३ से वैकल्पिक रूप से 'उप' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ओआसो भी सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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