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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 93 से आदि 'उ' का 'ऊ'; २-७७ से 'त्' का लोप; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स' और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऊससई रूप सिद्ध हो जाता है। 'उत्साह': संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'उच्छाहो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२१ से 'त्स' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उच्छाहो' रूप सिद्ध हो जाता है। "उत्सन्नः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'उच्छन्नो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२१ से 'त्स' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ' २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्'; का 'च्' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उच्छन्नो रूप सिद्ध हो जाता है।।११-११४।। लुंकि दुरो वा ॥ १-११५।। दुपसर्गस्य रेफस्य लोपे सति उत ऊत्वं वा भवति।। दूसहो दुसहो। दूहवो दुहओ।। लुकीति किम्। दुस्सहो विरहो। ___ अर्थः- 'दुर्' उपसर्ग में रहे हुए 'र' का लोप होने पर 'दु' मे रहे हुए 'उ' का विकल्प से 'ऊ'- होता है। जैसेःदुःसह= दूसहो और दुसहो।। दुर्भगः दूहवो और 'दुहओ' 'र' का लोप होने पर ऐसा उल्लेख क्यों किया? उत्तर:- यदि 'दुर्' उपसर्ग में रहे हुए 'र' का लोप नहीं होगा तो 'दु' में रहे हुए 'उ' का भी दीर्घ 'ऊ' नहीं होगा। जैसे:दुस्सहः विरहः दुस्सहो विरहो। यहाँ पर 'र' का 'स्' हो गया है और उसका लोप नहीं हुआ है; अतः 'दु' में स्थित 'उ' का भी 'ऊ' नहीं हुआ है, ऐसा जानना। दूसहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३ में की गई। दुर्सहः (दुस्सहः) संस्कृत विशेषण है इसका प्राकृत रूप दूसहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३ से 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुसहो रूप सिद्ध हो जाता है। ___'दुर्भगः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'दूहवो' और 'दुहओ' होते है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३ से 'र' का लोप; १-११५ से आदि 'उ' का विकल्प से 'ऊ'; १-१८७ से 'भ' का 'ह; १-१९२ से आदि दीर्घ 'ऊ' वाले प्रथम रूप में 'ग' का 'व': और १-१७७ से ह्वस्व 'उ' वाले द्वितीय रूप में 'ग' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'दूहवो' और 'दुहओ' रूप सिद्ध हो जाते हैं। दुस्सहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३ में की गई है। 'विरहः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'विरहो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विरहो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-११५।। __ ओत्संयोगे ।। १-११६।। संयोगे परे आदेरुत ओत्वं भवति।। तोण्डं। मोण्डं। पोक्खरं कोट्टिम। पोत्थओ। लोद्धओ। मोत्था। मोग्गरो। पोग्गलं। कोण्ढो। कोन्तो। वोक्कन्त।। अर्थः- शब्द में रहे हुए आदि 'उ' के आगे यदि संयुक्त अक्षर आ जाय; तो उस 'उ' का 'ओ' हो जाया करता है। जैसे- तुण्डम्=तोण्ड। मुण्ड्-मोण्ड। पुष्करम् = पोक्खरं। कुट्टिमम् =कोट्टिम। पुस्तकः= पोत्थओ। लुब्धकः लोद्धओ। मस्ता=मोत्था। मुद्गरः=मोग्गरो। पुद्गल्=पोग्गलं। कुष्ठः कोण्ढो। कुंतः कोन्तो। व्युत्क्रान्तम=वोक्कन्त। तुण्डम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तोण्डं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ; ३-२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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