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________________ 176 : प्राकृत व्याकरण कदल्यामुद्रमे।। १-२२०।। कदली शब्दे अद्रुम-वाचिनि दस्य रो भवति।। करली।। अद्रुम इति किम्। कयली केली॥ अर्थः-संस्कृत शब्द कदली का अर्थ वृक्ष-वाचक केला नहीं होकर मृग-हरिण 'वाचक अर्थ हो तो उस दशा में कदली शब्द में रहे हुए 'द' का 'र' होता है। जैसे:-कदली-करली अर्थात् मृग विशेष।। प्रश्नः सूत्र में 'अद्रुम' याने वृक्ष अर्थ नहीं ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-यदि 'कदली' का अर्थ पशु-विशेष वाचक नहीं होकर केला-वृक्ष-विशेष वाचक हो तो उस दशा में कदली में रहे हुए 'द' का 'र' नहीं होता है; ऐसा बतलाने के लिये ही सूत्र में 'अद्रुम' शब्द का उल्लेख किया गया है। जैसः-कदली कयली अथवा केली अर्थात् केला-वृक्ष विशेष।। ___ कदली संस्कृत रूप है। इसकी प्राकृत रूप करली होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२० से 'द' का 'र' होकर करली रूप सिद्ध हो जाता है। कयली और केला रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६७ में की गई है।। १-२२०।। प्रदीपि-दोहदे लः।। १-२२१।। प्रपूर्व दीप्यतौ धातौ दोहद-शब्दे च दस्य लो भवति॥ पलीवेइ। पलित्त। दोहलो॥ अर्थः-'प्र' उपसर्ग सहित दीप धातु में और दोहद शब्द में स्थित 'द' का 'ल' होता है जैसे:-प्रदीपयति=पलीवेइ।। प्रदीप्तम्=पलित्तं।। दोहदः-दोहलो।। प्रदीपयति संस्कृत सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप पलीवेइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से '' का लोप; १-२२१ से 'द' का 'ल'; १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-१४९ से प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णि' के स्थानीय प्रत्यय 'अय' के स्थान पर 'ए' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलीवेइ रूप सिद्ध हो जाता है। प्रदीप्तम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पलित्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२२१ से 'द' का 'ल'; १-८४ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्ति 'म्' का अनुस्वार होकर पलित्तं रूप सिद्ध हो जाता है। दोहलो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२१७ में की गई है।। १-२२१।। कदम्बे वा।।१-२२२॥ कदम्ब शब्दे दस्य लो वा भवति।। कलम्बो। कयम्बो।। अर्थ:-कदम्ब शब्द में स्थित 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ल' होता है। जैसे:-कदम्बः कलम्बो अथवा कयम्बो।। कदम्बः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कलम्बो अथवा कयम्बो होते हैं। प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२२२ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कलम्बो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप कयम्बो की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३० में की गई है।। १-२२२।। दीपो धो वा।। १-२२३।। दीप्यतो दस्य धो वा भवति।। धिप्पइ। दिप्पइ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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