________________
दंश - दहोः ।। १ - २१८ ।।
जाता है। जैसे:- दशति-डसइ।। दहति-डहइ।।
अनयोर्धात्वोर्दस्य डो भवति ।। डसइ । डहइ।। अर्थः- दंश और दह धातुओ में स्थित 'द' का प्राकृत रूपान्तर में 'ड' दशति संस्कृत सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप डसइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२१८ से 'द' का 'ड'; १-२६० से 'श' का 'स' और ३ - १३९ से वर्तमानकाल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डसइ रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 175
दहति संस्कृत सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप डहइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२१८ से 'द' का 'ड' और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डहइ रूप सिद्ध हो जाता है ।।। १-२१८ ।।
संख्या - गद्गदे रः ।। १-२१९।।
संख्यावाचिनि गद्गद् शब्दे च दस्य रो भवति । । एआरह । बारह ।। तेरह । गग्गरं । अनादिरित्येव । ते दस ।। असंयुक्तस्येत्येव । चउद्दह ।।
अर्थः-संख्यावाचक शब्दों में और गद्गद् शब्द में रहे हुए 'द' का 'र' होता है। जैसे:- एकादश-एआरह।। द्वादश-बारह।। त्रयोदश= तेरह।। गद्गदम् = गग्गरं । ।
'सूत्र - संख्या १ - १७६ का विधान क्षेत्र यह सूत्र भी है; तदनुसार संख्या - वाचक शब्दों में स्थित 'द' यदि अनादि रूप से ही हो; अर्थात् संख्या - वाचक शब्दों में आदि रूप से स्थित नहीं हो; तभी उस 'द' का 'र' होता है।
जैसे:
यदि संख्या - वाचक शब्दों में 'द' आदि अक्षर रूप से स्थित है; तो उस 'द' का 'र' नहीं होता है। ऐसा बतलाने के लिये ही इस सूत्र की वृत्ति में 'अनादेः रूप शब्द का उल्लेख करना पड़ा है। :- तव दश-ते दस || सूत्र - संख्या १ - १७६ के विधान अन्तर्गत होने से यह विशेषता और है कि संख्या - वाचक शब्दों में स्थित 'द' का 'र' उसी अवस्था में होता है जबकि 'द' असंयुक्त हो; हलन्त नहीं हो; स्वर सहित हो; इसीलिये सूत्र की वृत्ति में ' असंयुक्त' ऐसा विधान किया गया है। ‘सयुंक्त' होने की दशा में 'द' का 'र' नहीं होगा । जैसे:- चतुर्दश-चउद्दह।। इत्यादि।।
एकादश संख्या वाचक संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप एआरह होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - २१९ से 'द' का 'र'; और १ - २६२ से 'श' का 'ह' होकर एआरह रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वादश संख्या वाचक संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप बारह होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'द्' का लोप; २-१७४ से वर्ण-व्यत्यय के सिद्धान्तानुसार 'व' के स्थान पर 'ब' का आदेश; १ - २१९ से द्वितीय 'द्' का 'र' और १ - २६२ से 'श' का 'ह' होकर बारह रूप सिद्ध हो जाता है।
तेरह रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १६५ में की गई है।
गद्गदम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गग्गंर होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से द्वितीय 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; १ - २१९ से द्वितीय 'द' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गग्गरं रूप सिद्ध हो जाता है।
तव दश संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ते दस होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - ९९ से संस्कृत सर्वनाम 'युष्मद्' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'तव' रूप के स्थान पर 'ते' रूप का आदेश; और १ - २६० से 'श' का 'स' होकर ते दस रूप सिद्ध हो जाता है।
उद्दह रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७१ में की गई है । । १ - २१९ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org