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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 177 अर्थ- दीप धातु में स्थित 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ध' होता है। जैसे- दीप्यते धिप्पइ अथवा दिप्प || दीप्य संस्कृत अकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप धिप्पइ और दिप्पर होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १ - २२३ से 'द्' का वैकल्पिक रूप से 'धू'; २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से 'प' का द्वित्व ‘प्प'; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति होकर दोनों रूप धिप्प और दिप्पइ क्रम से रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-२२३ ।। कदर्थिते वः ।। १-२२४।। कदर्थिते दस्य वो भवति ।। कवट्टिओ ।। अर्थः कदर्थित शब्द में रहे हुए 'द' का 'व' होता है। जैसे-कदर्थितः=कवट्टिओ।। कदाथतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप कवट्टिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२४ से 'द्' का 'व'; २-२९ से संयुक्त 'थ' का 'ट'; २-८९ से प्राप्त 'ट' का द्वित्व 'ट्ट'; १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कवट्टिओ रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२२४ ।। ककुदे हः ।। १-२२५।। ककुदे दस्य हो भवति ।। कउहं ।। अर्थः- ककुद् शब्द में स्थित 'द' का 'ह' होता है। जैसे - ककुद - कउहं । । ककुद् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउहं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से द्वितीय 'क' का लोप; १ - २२५ से 'द्' का 'ह'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कउहं रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-२२५ ।। निषधे धो ढः ।। १-२२६।। निषधे धस्य ढो भवति ॥ निसढो ॥ अर्थः-निषध शब्द में स्थित 'ध' का 'ढ' होता है। जैसे:- निषध:-निसढो ।। निषध संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निसढो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'ष' का 'स'; १-२२६ से 'ध' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निसढो रूप सिद्ध हो जाता है ।।। १-२२६।। वौषधे।। १-२२७। औषधे धस्य वा भवति ।। ओसढं। ओसहं । । अर्थः-औषध शब्द में स्थित 'ध' का वैकल्पिक रूप से 'ढ' होता है। जैसे:- औषधम् - ओसढं अथवा ओसहं।। औषधम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ओसढं और ओसहं होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १५९ से 'औ' का 'ओ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; १ - २२७ से प्रथम रूप में वैकल्पिक रूप से 'ध' का 'ढ' तथा द्वितीय रूप में १ - १८७ से 'ध' का 'ह'; ' ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप ओसढं और ओसहं सिद्ध हो जाते हैं । ।। १-२२७ ।। नो णः ।। १ - २२८ ॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्नस्य णो भवति ।। कणयं । मयणो । वयणं । नयणं । माणइ | | आर्षे ।। आरनालं । अनिलो । अनलो। इत्याद्यपि ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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