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290 : प्राकृत व्याकरण
स्वप्ने नात् ।। २-१०८।। स्वप्नशब्दे नकारात् पूर्व इद् भवति।। सिविणो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'स्वप्न' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- स्वप्नः सिविणो।।२-१०८।।
स्निग्धे वादितौ ॥ २-१०९॥ स्निग्धे संयुक्तस्य नात् पूर्वी अदितौ वा भवतः।। सणिद्धं सिणिद्ध। पक्षे निद्ध।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'स्निग्ध' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में वैकल्पिक रूप से कभी आगम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है अथवा कभी आगम रूप 'इ' की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे:- स्निग्धम् सणिद्धं अथवा सिणिद्धं; अथवा पक्षान्तर में निद्ध रूप भी होता है।
"स्निग्धम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सणिद्ध, 'सिणिद्ध' और 'निद्ध' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०९ से संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १-२२८ से'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सणिद्धं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(स्निग्धम्= ) 'सिणिद्ध' में सूत्र संख्या २-१०९ से संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'इ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सिणिद्ध' भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप-(स्निग्धम्= ) 'निद्ध' में सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त 'स्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप 'निद्ध' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०९।।
कृष्णे वर्णे वा ।। २-११०॥ कृष्णे वर्णे वाचिनि संयुक्तास्यान्त्यव्यञ्जनात्-पूर्वी अदितौ वा भवतः।। कसणो कसिणो कण्हो।। वर्ण इति किम्॥ विष्णो कण्हो॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'कृष्ण' का अर्थ जब 'काला' वर्ण वाचक हो तो उस अवस्था में इसके प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'ण' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ष' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है अथवा कभी वैकल्पिक रूप से आगम रूप'ई' की प्राप्ति होती है। जैसे:- कृष्णः = (काला वर्णीय)-कसणो अथवा कसिणो।। कभी-कभी कण्हो भी होता है।
प्रश्नः- मूल सूत्र में वर्ण'-(रंग वाचक)-ऐसा शब्द क्यों दिया गया है ?
उत्तरः- संस्कृत साहित्य में 'कृष्ण' शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक तो 'काला-रंग'-वाचक अर्थ होता है और दूसरा भगवान् कृष्ण-वासुदेव वाचक अर्थ होता है। इसलिये संस्कृत मूल शब्द 'कृष्ण' में 'ण' व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ष' में आगम रूप 'अ की अथवा 'इ' की प्राप्ति केवल वर्ण वाचक-स्थिति में ही होती है; द्वितीय अर्थ-वाचक स्थिति में नहीं। ऐसा विशेष अर्थ बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में 'वर्ण' शब्द जोड़ा गया है। उदाहरण इस प्रकार है:कृष्णः- (विष्णु-वाचक) कण्हो होता है। कसणो भी नहीं होता है और कसिणा भी नहीं होता है। यह अन्तर ध्यान में रखने योग्य है।
कसणो, कसिणो और कण्हो; इन तीनों की सिद्धि सूत्र संख्या २-७५ में की गई है।। २-११०।।
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