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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 289
नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'थेरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
भारिआ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-२४ में की गई है। 'गाम्भीर्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गम्भीरिअं' और 'गहीरिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अकी प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'गम्भीरिअं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(गाम्भीर्यम्=) 'गहीरिअं में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से हलन्त व्यञ्जन 'म' का लोप; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप: ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'गहीरिअं' भी सिद्ध हो जाता है।
'आयरिओ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७३ में की गई है। 'सुन्दरिअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६० में की गई है।
'शौर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१५९ से 'ओ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सोरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'वीर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वीरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वीरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
'वर्यम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सूर्यः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सूरिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सूरिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __'धैर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धीरिअं होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१५५ से 'ऐ' के स्थान 'ई' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'धीरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
'बम्हचरिअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-६२ में की गई है। ।। २-१०७।।
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