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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 223
अर्थः- 'अभिमन्यु' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्य के स्थान पर विकल्प से 'ज' और 'ज' की प्राप्ति होती है। इस प्रकार 'अभिमन्यु संस्कृत शब्द के प्राकृत रूप तीन हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- अभिमन्युः अहिमज्जू अथवा अहिमञ्जू अथवा अहिमन्नू।। मूल-सूत्र में 'अभिमन्यु' लिखा हुआ है; अतः जिस समय में केवल 'मन्यु शब्द होगा; अर्थात् 'अभि' उपसर्ग नहीं होगा; तब 'मन्यु' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर सूत्र संख्या २-२५ के अनुसार क्रम से 'ज' अथवा 'ज' की प्राप्ति नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि 'मन्यु' शब्द के साथ में अभि' उपसर्ग होने पर ही संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर 'ज' अथवा 'ञ' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं। जैसे:- मन्युः मन्न। __ 'अभिमन्युः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत में तीन रूप होते हैं:- 'अहिमज्ज', 'अहिमञ्जू' और 'अहिमन्न ।। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-२५ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अहिमज्ज' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-२५ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'ज' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्रथम रूप के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अहिमञ्जू' भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप अहिमन्नू की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४३ में की गई है।
'मन्युः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मन्नू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से रहे हए 'न' को द्वित्व'न' की प्राप्तिः और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'मन्नू रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२५।।
साध्वस-ध्य-या-झः ।। २-२६ ॥ साध्वसे संयुक्तस्य घ्य-ह्ययोश्च झो भवति ।। सज्झसं ॥ ध्य । वज्झए । झाणं। उवज्झाओ। सज्झाओ सज्झं विञ्झो। ह्य । सज्झो मज्झं ।। गुज्झं । णज्झइ।। __ अर्थः- 'साध्वस' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- साध्वसम्=सज्झस।। इसी प्रकार जिन शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' अथवा 'ह्य होता है; तो इन संयुक्त व्यंजन 'ध्य' और 'ह्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'व्य' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- वध्यते वज्झए। ध्यानम्-झाणं। उपाध्यायः उवज्झाओ। स्वाध्यायः-सज्झाओ। साध्यम्-सज्झं और विंध्यः विझो।। 'ह्य' के उदाहरण इस प्रकार है:- सह्यः सज्झो। मां-मझा गुह्यम्=गुज्झं और नह्यति=णज्झइ इत्यादि।। _ 'साध्वसम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सज्झस होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घस्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; १-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' को ज् की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सज्झसं रूप सिद्ध हो जाता है।
'वध्यते' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वन्झए' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' को 'ज्' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वज्झए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ध्यानम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'झाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के
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