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96 : प्राकृत व्याकरण
लोप; १-११९ से 'ऊ' का विकल्प से 'अ'; और 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दुअल्लं और दुऊल रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दुकूलम् संस्कृत शब्द है। इसका आर्ष-प्राकृत में दुगुल्लं रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-३ से 'दुकूल' का दुगुल्ल; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्तिः और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुगुल्लं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-११९।।
ईर्वोद्वयूढे।। १-१२०॥ उद्वयूढशब्दे ऊत ईत्वं वा भवति।। उव्वीढं। उव्वूढं।। अर्थः- उद्वयूढ शब्द से रहे हुए दीर्घ 'ऊ' की विकल्प से दीर्घ 'ई' होती है। जैसे-उद्वयूढम् उव्वीढं और उव्वूढ।।
'उद्वयूढम्' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'उव्वीढं' और 'उव्वूढ' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से 'व्' का द्वित्व 'व्व';१-१२० से दीर्घ 'ऊ' की विकल्प से दीर्घ 'ई'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'उव्वीद' और 'उव्वूढ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१२०।।
उर्भु-हनुमत्कण्डूय-वातूले।। १-१२१।। एषु ऊत उत्वं भवति।। भुमया। हणुमन्तो। कण्डुअई। वाउलो।।
अर्थः- श्रू, हनुमत, कण्डूयति और वातूल इन शब्दों में रहे हुए दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ' होता है। जैसे- धूमया = भुमया। हनूमान-हणुमन्तो। कण्डूयति-कण्डुअइ। वातूलः=वाउलो। __ 'भ्रमया' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भुमया' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १–१२१ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ' होकर भुमया रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'हनुमान्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप ‘हणुमन्तो' होता है। इसका मूल शब्द हनूमत् है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; २-१५९ से, स्वार्थ में 'मत्' प्रत्यय के स्थान पर 'मन्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हणुमन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कण्डूयति' संस्कृत सकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप कण्डुअइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कण्डुअइ रूप सिद्ध हो जाता है।
'वातूलः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'वाउलो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व, 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वाउलो' रूप सिद्ध हो जाता है।। १-१२१।।
मधुके वा।। १-१२२।। मधूक शब्दे ऊत उद् वा भवति।। महुअं महू। अर्थः- मधूक शब्द में रहे हुए दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से हस्व'उ' होता है। जैसे -मधूकम्-महुअं और महुआ 'मधूक' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'महुअं' और 'महूअं होते है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' का 'ह'; १-१२२ से दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से हस्व 'उ'; १-१७७ से 'क' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
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