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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 95 से आदि 'उ' का 'ओ'; २-७९ से 'र्' का लोप; २- ७७ से 'तू' का लोप; २-८९ से 'क' का द्वित्व 'क्क'; १-८४ से 'का' में रहे हुए 'आ' का 'अ'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वोक्कन्तं' रूप सिद्ध हो जाता है।।।१-११६।।
कुतूहले वा हस्वश्च ।। १-११७।।
कुतूहल शब्दे उत ओद् वा भवति तत्संनियोगे हस्वरच वा ।। कोऊहलं कुऊहलं कोउहल्लं ।।
अर्थः- कुतूहल शब्द में रहे हुए आदि 'उ' का विकल्प से 'ओ' होता है। और जब 'ओ 'होता है, तब 'तू' में रहा हुआ दीर्घ 'ऊ' विकल्प से ह्रस्व हो जाया करता है। जैसे - कुतूहल- कोऊहलं; कुऊहलं; और कोउहल्लं । तृतीय रूप में आदि 'उ' का 'ओ' हुआ है; अतः उसके पास वाले-याने संनियोग वाले 'तू' में रहे हुए दीर्घ 'ऊ' का ह्रस्व 'उ' हो गया है।
'कुतूहल' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप कोऊहलं; कुऊहलं; कोउहल्लं होते हैं इनमें सूत्र - संख्या १-११७ से आदि 'उ' का विकल्प से 'ओ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से कोऊहलं और कुहलं रूप सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप में सूत्र - संख्या १ - ११७ से आदि 'उ' का 'ओ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-११७ से 'ओ' की संनियोग अवस्था होने के कारण से द्वितीय दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; २-९९ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुसवार होकर 'कोउहल्ल' रूप सिद्ध हो जाता है । । १ - ११७ ।।
अदूतः सूक्ष्मे वा ।। १-११८।।
सूक्ष्म शब्दे ऊतोद् वा भवति ।। सहं सुहं | | आर्षे । सुहुमं ।।
में
अर्थः- सूक्ष्म शब्द में रहे हुए 'ऊ' का विकल्प से 'अ' होता है। जैसे- सूक्ष्मम् = सण्हं और सुहं । आर्ष प्राकृत 'सुहुम' रूप भी पाया जाता है।
'सूक्ष्म' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप सण्हं और सुहं होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - ११८ से 'ऊ' का विकल्प से 'अ'; २-७५ से 'क्ष्म' का 'ह'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप सण्हं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-११८ के वैकल्पिक विधान के अनुस्वार 'ऊ' का 'अ' नहीं होने पर १-८४ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ' होकर 'सुह' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सूक्ष्म' संस्कृत विशेषण है। इसका आर्ष में प्राकृत रूप 'सुहुम' होता है। इसमें सूत्र- संख्या २ - ३ से 'क्ष्' का 'ख्'; १-१८७ से प्राप्त 'ख्' का 'ह'; २- ११३ से प्राप्त 'ह' में 'उ' की प्राप्ति; १-८४ से 'सू' में रहे हुए 'ऊ' का 'उ'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग मे 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुहुम' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१ - ११८ ॥
दुकूले वा लश्च द्विः ।। १-११९।।
दुकूल शब्दे ऊकारस्य अत्वं वा भवति । तत्संनियोगे च लकारो द्विर्भवति ।। दुअल्लं, दुऊलं ।। आर्षे दुगुल्लं ।।
अर्थः- दुकूल शब्द में रहे हुए द्वितीय दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से 'अ' होता है; इस प्रकार 'अ' होने पर आगे रहे हुए 'ल' का द्वित्व 'ल्ल' हो जाता है; जैसे- दुकूलम् = दुअल्लं और दुऊलं | | आर्ष-प्राकृत में दुकूलम का दुगुल्लं रूप भी होता है।
दुकूलं संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप दुअल्लं और दुऊलं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'क' का
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