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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 281 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २ - १०१ की वृत्ति से हलन्त व्यञ्जन 'क्ष' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति और -रूप होने से (सूत्राभावात्) प्राप्त 'क्ष' के स्थान पर 'ह' रूप आदेश की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आर्ष-प्राकृत रूप 'सुहमं' सिद्ध हो जाता है। ।। २ - १०१ ।।
स्नेहाग्न्योर्वा ।। २-१०२।।
अनयोः संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात् पूर्वोकारो वा भवति ।। सणेहो । नेहो । अगणी । अग्गी ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'स्नेह' और 'अग्नि' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य ( में स्थित ) व्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन में प्राकृत रूपान्तर में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। जैसे:-स्नेह :-सणेहो अथवा नेहो और अग्निः अगणी अथवा अग्गी ||
'स्नेहः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सणेहो' और 'नेहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या - २ - १०२ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सणेहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'नेहो' की सिद्धि सूत्र संख्या २- ७७ में की गई है।
'अग्निः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अगणी' और 'अग्गी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या२ - १०२ से हलन्त व्यञ्जन 'ग्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अगणी' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (अग्निः = ) 'अग्गी' में सूत्र - संख्या २- ७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अग्गी' भी सिद्ध हो जाता है ।। २- १०२ ।।
प्लक्षे लात् ।। २-१०३।।
प्लक्ष शब्दे संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनाल्लात् पूर्वोद् भवति ।। पलक्खो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'प्लक्ष' में सभी व्यञ्जन संयुक्त स्थिति वाले हैं। अतः यह स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'प्ल' में स्थित 'ल' व्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'प्' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति प्राकृत - रूपान्तर में होती है। जैसे- प्लक्ष :- पलक्खो ।।
'प्लक्ष:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पलक्खो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १०३ से हलन्त व्यञ्जन 'प्' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ‘ख्' को 'क्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पलक्खो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०३ ।।
ई - श्री - ही - कृत्स्न-क्रिया - दिष्टयास्वित् ॥ २-१०४।।
एषु संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्व इकारो भवति ।। है ।। अरिहइ । अरिहा । गरिहा । बरिहो।। श्री । सिरी ।। ही। हिरी।। ह्रीतः। हिरीओ।। अहीकः ।। अहिरीओ।। कृत्स्नः । कसिणो ॥ । क्रिया । किरिआ ।। आर्षे तु । हयं नाणं किया - हीणं ।। दिष्टया ।। दिट्टिआ ।।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'ह' रहा हुआ है; ऐसे शब्दों में तथा 'श्री, ही, कृत्स्न, क्रिया और दिष्टया 'शब्दों में रहे
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