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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 55 हस्व 'उ' का दीर्घ 'ऊ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'ऊसो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'विश्रम्भः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वीसम्भो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४३ से 'वि' के हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'वीसम्भो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विकस्वरः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'विकासरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'व्' का लोप; १-४३ से 'क' के 'अ' का 'आ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'विकासरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'निःस्वः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नीसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'निः' में रहे हुए विसर्ग अर्थात 'स्' का लोप; १-४३ से 'नि' के हस्व 'इ' को दीर्घ 'ई'; १-१७७ से 'व' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'ओ' की प्राप्ति होकर 'नीसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"निस्सहं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नीसहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से आदि 'स्' का लोप; १-४३ से 'नि' में रही हुई हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'नीसहो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-४३।।
अतः समृद्ध्यादौ वा ॥१-४४॥ समृद्धि इत्येवमादिषु शब्देषु आदेरकारस्य दी? वा भवति। सामिद्धी समिद्धी। पासिद्धी पसिद्धी। पायडं पयड। पाडिवआ पडिवआ। पासुत्तो पसुत्तो। पाडिसिद्धी पडिसिद्धी। सारिच्छो सरिच्छो। माणंसी मणंसी। माणसिणी मणसिणी। आहिआई अहिआई। पारोहो परोहो। पावासू पवासू। पाडिप्फद्धी पडिप्फद्धी।। समृद्धि। प्रसिद्धि। प्रकट। प्रतिपत। प्रसुप्त। प्रतिसिद्धि। सदृक्षा मनस्विन्। मनस्विनी। अभियाति। प्ररोह। प्रवासिन्। प्रतिस्पर्द्धिन।। आकृतिगणोयम्। तेन। अस्पर्शः। आफंसो।। परकीयम्। पारकरं। पारक्क।। प्रवचन। पावयण।। चतुरन्तम्। चाउरन्तं इत्याद्यपि भवति।। __ अर्थः-'समृद्धि' आदि शब्दों में रहे हुए 'अ' का विकल्प से दीर्घ अर्थात 'आ' होता है जैसे-समृद्धि-सामिद्धी और समिद्धी।। प्रसिद्धि-पासिद्धी और पसिद्धी।। प्रकट-पायड और पयड।। प्रतिपत्=पाडिवआ और पडिवआ। यों आगे भी शेष शब्दों में समझ लेना चाहिये।
वृत्ति में 'आकृति गणोऽयम्' कह कर यह तात्पर्य समझाया है कि जिस प्रकार ये उदाहरण दिये गये हैं; वैसे ही अन्य शब्दों में भी आदि 'अ' का दीर्घ 'आ' आवश्यकतानुसार समझ लेना। जैसे कि-अस्पर्षः आफंसो।। परकीयम्=पारकरं और पारक्क।। प्रवचनम्= पावयण।। चतुरन्तम् चाउरन्तं इत्यादि रूप से 'अ' का 'आ' जान लेना।
'समृद्धिः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'सामिद्धी' और 'समिद्धी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-४४ से विकल्प से आदि 'अ' का 'आ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' का दीर्घ 'ई' होकर 'सामिद्धी' और 'समिद्धी' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'प्रसिद्धीः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पासिद्धी' और 'पसिद्धी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का 'आ' विकल्प से होता है। ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व-'इ' दीर्घ 'ई' होकर 'पासिद्धी' और 'पसिद्धी' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ।
'प्रकटम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पायड' और 'पयड होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का 'आ' विकल्प से होता है। १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; १-१९५ से 'ट' का 'ड'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पायडं' और 'पयड' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
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