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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 363 आनन्द विषयक उदाहरणः- अव्वो सुप्रभातम् इदम् अव्वो सुपहायं इणं आनन्द की बात है कि (आज) यह सुप्रभात (हुआ)। आदर-विषयक उदाहरणः- अव्वो अद्य अस्माकम् सफलम् जीवितम् अव्वो अज्जम्ह सप्फलं जीअं= (आप द्वारा प्रदत्त इस) आदर से आज हमारा जीवन सफल हो गया है। __ भय-विषयक उदाहरण:-अव्वो अतीते त्वया केवलम् यदि सा न खेष्यति-अव्वो आइअम्मि तुमे नवरं जइ सा न जूरिहेइ-(मुझे) भय (है कि) यदि तुम चले जाओगे तो तुम्हारे चले जाने पर क्या वह खिन्नता अनुभव नहीं करेगी; अर्थात् अवश्य ही खित्रता अनुभव करेगी। यहां पर 'अव्वो' अव्यय भय सूचक है। __ खेद-विषयक उदाहरण:-अव्वो न यामि क्षेत्रम् अव्वो न जामि छेत्तं खेद है कि मैं खेत पर नहीं जाती हूँ। अर्थात् खेत पर जाने से मुझे केवल खिन्नता ही अनुभव होगी-रंज ही पैदा होगा। इस प्रकार यहां पर 'अव्वो' अव्यय का अर्थ खिन्नता अथवा रंज' ही है। विषाद-विषयक उदाहरण :संस्कृतः- अव्वो नाशयति धृतिम् पुलकं वर्धयन्ति छ्छंते रणरण कं॥
इदानीम् तस्य इति गुणा ते एव अव्वो कथम् नु एतत्।। प्राकृतः- अव्वो नासेन्ति दिहिं पुलयं वड्डेन्ति देन्ति रणरणय।।
एण्हिं तस्सेअ गुणा ते च्चिअ अव्वो कह णु ए। अर्थः- खेद है कि धैर्य का नाश करते हैं; रोमांचितता बढ़ाते हैं; काम-वासना के प्रति उत्सुकता प्रदान करते हैं; ये सब वृत्तियाँ इस समय में उसी धन-वैभव के ही दुर्गुण हैं अथवा अन्य किसी कारण से हैं? खेद है कि इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट रूप से विदित नहीं हो रहा है। इस प्रकार 'अव्वो' अव्यय यहाँ पर विषाद्-सूचक है।
पश्चाताप-विषयक उदाहरण इस प्रकार हःसंस्कृतः- अव्वो तथा तेन कृता अहम् यथा कस्मै कथयामि। प्राकृतः- अव्वो तह तेण कया अहयं जह कस्स साहेमि।
अर्थः- पश्चाताप की बात है कि जैसा उसने किया; वैसा मैं किससे कहूं? इस प्रकार यहां पर अव्वो अव्यय पश्चाताप सूचक है।
अव्वो-प्राकृत-साहित्य का रूढ-रूपक और रूढ अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। 'दुष्कर-कारक' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दुक्कर-यारय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ष' के पश्चात् शेष रहे हुए प्रथम 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति;१-१७७ से द्वितीय 'क' और तृतीय 'क्' का लोप; १-१८० से दोनों 'क्' वर्गों के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' और 'अ' के स्थान पर क्रमिक रूप से 'या' और 'य' की प्राप्ति होकर 'दुक्कर-यारय' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'दलन्ति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दलन्ति' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त धातु 'दल' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दलन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'हृदयम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिययं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'हिययं रूप सिद्ध हो जाता है।
किम अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
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