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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 337 के स्थान पर 'विउस' रूप का निपात; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसका लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'विउसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्रुत-लक्षणानुसारेण संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुअ-लक्खणाणुसारेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'थ्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त हुए 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त हुए पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति
और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय रूप 'ण' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'सुअ-लक्खणाणुसारेण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'वाक्यान्तरेषु' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वक्कन्तरेसु होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से प्रथम दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति १-४ से प्राप्त 'क्का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से '' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति अथवा ३-१५ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'सुप्-सु' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'वक्कन्तरेसु रूप सिद्ध हो जाता है।
'अ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
'पुनः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो-ओ' की प्राप्ति; प्राप्त वर्ण 'डो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'न' व्यञ्जन के अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा; एवं १-५ से प्राप्त हलन्त 'न्' में विसर्ग स्थानीय 'ओ' की संधि होकर 'पुणो रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७४।।
अव्ययम् ।। २-१७५।। अधिकारोयम्। इतः परं ये वक्ष्यन्ते आ पाद समाप्ते स्तेऽव्ययसंज्ञा ज्ञातव्याः।।
अर्थः- यह सूत्र-अधिकार-वाचक है; प्रकारान्तर से यह सूत्र-विवेच्यमान विषय के लिये शीर्षक रूप भी कहा जा सकता है; क्योंकि यहां से नवीन विषय रूप से 'अव्यय-शब्दों का विवेचन प्रारम्भ किया जाकर इस द्वितीय पाद की समाप्ति तक प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध लगभग सभी अव्ययों का वर्णन किया जायगा। अतः पाद-समाप्ति-पर्यन्त जो शब्द कहे जायेंगे; उन्हें अव्यय-संज्ञा' वाला जानना चाहिए।।२-१७५।।
तं वाक्योपन्यासे ॥ २-१७६।। तमिति वाक्योपन्यासे प्रयोक्तव्यम्।। ततिअस-बन्दि-मोक्ख।।
अर्थः- 'त' शब्द अव्यय है और यह वाक्यांश के प्रारंभ में शोभारूप से-अलंकार रूप से प्रयुक्त होता है; ऐसी स्थिति में यह अव्यय किसी भी प्रकार का अर्थ सूचक नहीं होकर केवल अलंकारिक होता है। इसे केवल साहित्यिक परिपाटी ही समझना चाहिए। जैसे:- त्रिदश-बंदिमोक्षम्=तं तिअस-बंदि मोक्खं। इस उदाहरण में संस्कृत रूप में तं' वाचक शब्द रूप का अभाव है; किन्तु प्राकृत में 'त' की उपस्थिति है; यह उपस्थिति शोभा रूप ही है; अलंकारिक ही है; न कि किसी विशेष तात्पर्य को बतलाती है। यों अन्यत्र भी 'तं' की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। 'तं' अव्यय है। इसकी साधनिका की आवश्यकता उपरोक्त कारण से नहीं है।
'त्रिदश-बन्दि-मोक्षम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तिअस-बन्दि मोक्खं होता है। इसमें सूत्र संख्या
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