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________________ 336 : प्राकृत व्याकरण 'श्लिष्यति' संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'अवयासइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १७४ से मूल संस्कृत रूप 'श्लिष्' के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में रूढ़ रूप 'अवयास' का निपात; ४ - २३९ से प्राप्त रूप 'अवयास्' में संस्कृत गण वाचक 'य' विकरण प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रूढ अर्थ' वाचक रूप 'अवयासइ' सिद्ध हो जाता है। 'उत्पाटयति' अथवा कथयति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'फुम्फुल्लइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत रूप 'उत्पाट्' अथवा 'कथ्' के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में रूढ रूप 'फुम्फुल्ल' का निपात; ४-२३९ से प्राप्त रूप 'फुम्फुल्ल' में संस्कृत गण वाचक 'अय' विकरण प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रूढ अर्थ' वाचक रूप 'फुम्फुल्लइ' सिद्ध हो जाता है। 'उत्पाटयति' संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'उप्फालेइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत रूप 'उत्पाट्' के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में रूढ रूप 'उप्फाल्' का निपात; ४ - २३९ से प्राप्त रूप 'उप्फाल्' में संस्कृत गण वाचक 'अय' विकरण प्रत्यय के स्थान पर देशज प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - १५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय प्राप्ति होकर 'रूढ अर्थ' वाचक रूप 'उप्फाले ' सिद्ध हो जाता है। मन्दर-तट- परिघृष्टम् संस्कृत विशेषणात्मक वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'मन्दर - यड - परिघट्ट' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से ‘त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-१९५ से प्रथम 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर ‘ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० से 'ठ' के स्थान पर 'टू' की प्राप्ति; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मन्दर - यड- परिघट्ट' रूप सिद्ध हो जाता है। ‘तद्दिवस-निघृष्टानंगः' संस्कृत विशेषणात्मक वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'तद्दिअस - निहट्ठाणंगो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - १८७ से प्राप्त 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-३४ से ' ष्ट्' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति; ३-८९ से 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; १ - २२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १ - ३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे कवर्गीय 'ग' होने से पंचमाक्षर रूप 'ङ्' की प्राप्ति ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ' तद्दिअस निहट्टाणंगो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'घृष्टाः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घट्टा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ्' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ट्' के स्थान पर 'टू' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसका लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'घट्टा' रूप सिद्ध हो जाता है। = 'मृष्टाः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मट्ठा' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त घृष्टा :- घट्टा रूप में प्रयुक्त सूत्रों से होकर 'मट्ठा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'विद्वांसः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विउसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १७४ से विद्वान् अथवा 'विद्धस्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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