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________________ द्वितीय- पाद संयुक्तस्य ।। २-१ ॥ अधिकारोऽयं ज्यायामीत् (२ - ११५) इति यावत् । यदित ऊर्ध्वम् अनुक्रमिष्यामस्तत् संयुक्तस्येति वेदितव्यम्।। अर्थः- इस पाद में संयुक्त वर्णों के विकार, लोप, आगम और आदेश संबंधी नियमों का वर्णन किया जायेगा; अतः ग्रंथकार ने ‘संयुक्तस्य' अर्थात् 'संयुक्त वर्ण का' ऐसा सूत्र निर्माण किया है । वृत्ति में कहा गया है कि यह सूत्र अधिकार वाचक है; अर्थात् इसके पश्चात् बनाये जाने वाले सभी सूत्रों से इसका संबंध समझा जायेगा; तद्नुसार इसका अधिकार क्षेत्र सूत्र संख्या २- ११५ अर्थात् 'ज्यायामीत्' सूत्र संख्या २ - ११५ तक जो भी वर्णन - उल्लेख होगा; वह सब 'संयुक्त वर्ण' के संबंध में ही है, चाहे इन सूत्रों में 'संयुक्त' ऐसा उल्लेख हो अथवा न भी हो; तो भी 'संयुक्त' का उल्लेख समझा जाय एवं माना जाय ॥२- १॥ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 205 शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण - मृदुत्वे को वा ।। २-२।। एषु संयुक्तस्य को वा भवति । सक्को सत्तो । मुक्को मुत्तो । डक्को दट्ठो | लुक्को लुग्गो । माउक्कं माउत्तणं ।। अर्थः- शक्त, मुक्त, दष्ट, रुग्ण और मृदुत्व शब्दों में रहे हुए संपूर्ण संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर विकल्प से 'क' होता है। जैसे:- शक्त=सक्को अथवा सत्तो; मुक्तः = मुक्को अथवा मुत्तो; दष्टः- डक्का अथवा दट्ठो; रुग्णः - लुक्को अथवा लुग्गो; और मृदुत्वम् = माउक्कं अथवा माउत्तणं । 'शक्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्रारूप रूप 'सक्को' और 'सत्तो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स'; प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२ से 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'क' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'क' का द्वित्व 'क्क' ; द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २- ७७ से 'क्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'सक्कों' और 'सत्तो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'मुक्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्रारूप रूप 'मुक्को' और 'मुत्तो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२ से 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'क' ; २-८९ से प्राप्त 'क्' का द्वित्व 'क्क' ; द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ ‘क्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'मुक्का' और 'मुत्तो' रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'दष्टः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्रारूप रूप 'डक्को' और 'दट्ठो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १- २१५ से 'द' का 'ड'; २-२ से 'ष्ट' के स्थान पर विकल्प से 'क' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'क' का द्वित्व 'क्क' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'डक्को' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'दट्ठा' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २१७ में की गई है। 'रुग्णः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्रारूप रूप 'लुक्को' और 'लुग्गो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'लुक्को' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २५४ में की गई है। द्वितीय रूप 'लुग्गो' में सूत्र संख्या १ - २५४ से 'र' का 'ल'; ४-२५८ से 'ण' प्रत्यय की विकल्प से प्राप्ति; तदनुसार यहाँ पर 'ण' का अभाव, २-८९ से शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लुग्गो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'माउक्क' और 'माउत्तणं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२७ में की गई है ।। २-२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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