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204 : प्राकृत व्याकरण
'अवट: संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अडा' और 'अवडो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का अर्थात् संपूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; १-१९५ से 'ट' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के
में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'अडा' और 'अवडो' दोनों की सिद्धि हो जाती है।
'प्रावारकः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'पारओ' और 'पावारओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'वा' का विकल्प से लोप; १-१७७ से दोनों रूपों में 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'पारओ' और 'पावारओ' रूपों की सिद्धि हो जाती है। _ 'देव-कुलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दे-उल' और 'देव-उलं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का अर्थात् सम्पूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; १-१७७ से 'क' का दोनों रूपों में लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'दे-उल' और 'देव-उलं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
"एवमेव' संस्कृत अव्यव है। इसके प्राकृत रूप 'एमेव' और 'एवमेव' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वर्ती (प्रथम) सस्वर 'व' का अर्थात् सम्पूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होकर क्रम से 'एमेव' और 'एवमेव' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।। १-२७१।।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र-विरचितायां सिद्ध हेम-चन्द्राभिधान
स्वोपज्ञ शब्दानुशासन वृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः।। इस प्रकार आचार्य श्री हेमचन्द्र महाराज द्वारा रचित 'सिद्ध हेमचन्द्र नाम वाली और स्व-कृत टीका वाली शब्दानुशासन रूप व्याकरण के आठवें अध्याय रूप प्राकृत-व्याकरण का प्रथम पाद (प्रथम चरण) पूर्ण हुआ।।
पादान्त मंगलाचरण यद्दोर्मण्डल कुण्डली कृत धनुर्दण्डेन सिद्धाधिप! क्रीतं वैरिकुलात् त्वया किल दलत् कुन्दावदातं यशः।। भ्रान्त्वा त्रीणि जगन्ति खेद-विवशं तन्मालवीनां व्यधा
दापाण्डो स्तनमण्डले च धवले गण्डस्थले च स्थितिम्।। अर्थः- हे सिद्धराज! आपने अपने दोनों भुज-दण्डों द्वारा गोलाकार बनाये हुए धनुष की सहायता से खिले हुए मोगरे के फूल के समान सुन्दर एवं निर्मल यश को शत्रुओं से (उनको हरा कर) खरीदा है-(एकत्र किया है) उस यश ने तीनों जगत में परिभ्रमण करके अन्त में थकावट के कारण से विवश होता हआ मालव देश के राजाओं की पत्नियों के अंग राग नहीं लगाने के कारण से) फीके पड़े हुए स्तन-मण्डल पर एवं सफेद पड़े हुए गालों पर विश्रांति ग्रहण की है। आचार्य हेमचन्द्र ने मंगलाचरण के साथ महान् प्रतापी सिद्धराज की विजय-स्तुति भी श्रृंगार-युक्त-ढंग से प्रस्तुत कर दी है। यह मंगलाचरण प्रशस्ति-रूप है; इसमें यह ऐतिहासिक तत्त्व बतला दिया है कि सिद्धराज ने मालवे पर चढ़ाई की थी; वहां के नरेशों को बुरी तरह से पराजित किया था; एवं इस कारण से राज-रानियों ने श्रृंगार करना और अंग राग लगाना छोड़ दिया था; जिससे उनका शरीर एवं उनके अंगोपांग फीके फीके प्रतीत होते थे तथा राज्य भ्रष्ट हो जाने के कारण से दुःखी होने से उनके मुख-मण्डल भी सफेद पड़ गये थे; यह फीकापन और सफेदी महाराज सिद्धराज के उस यश की मानों प्रति छाया ही थी; जो कि विश्व के तीनों लोक में फैल गया था। काव्य में लालित्य और वक्रोक्ति एवं उक्ति-वैचित्र्य-अलंकार का कितना सुन्दर सामंजस्य है? ___ 'मूल सूत्र और वृत्ति' पर लिखित प्रथम पाद संबंधी 'प्रियोदय चन्द्रिका' नामक हिन्दी व्याख्या एवं शब्द-साधनिका भी समाप्त।।
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