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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 109
प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउ-मण्डलं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मातृ-गृहम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउ-हरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से त् का लोप; १-१३४ से आदि 'ऋ'का 'उ'; २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' का आदेश; १-१८७ से प्राप्त 'घ' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर माऊहर रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृ-गृहम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-हरं होता है। इसकी साधनिका ऊपर वर्णित 'मातृ-गृहम् माउ-हर रूप के समान ही जानना।
मातृ-ष्वसा संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप माउ-सिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का 'उ';२-१४२ से 'ष्वसा' शब्द के स्थान पर 'सिआ' का आदेश लेकर 'माउसिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृ-ष्वसा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-सिआ होता है। इनकी साधानिका उपर वर्णित मातृ ष्वसा=माउ-सिआ के समान ही जानना।
पितृ-वनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-वण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का 'उ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिउ-वणं रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृ-पतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-वइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से दोनों 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का 'उ'; १-२३१ से 'प' का 'व'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पिउवई रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१३४।।
मातुरिद्वा ॥१-१३५।। मातृ शब्दस्य गौणस्य ऋत इद् वा भवति।। माइ-हरं। माउ-हरं। कचिदगौणस्यापि। माईण।।
अर्थः-किसी संयुक्त शब्द में गौण रूप से रहे हुए 'मातृ' शब्द के 'ऋ' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे मातृ-गृहम् माइ-हरं अथवा माउ-हरं।। कहीं कहीं पर गौण नहीं होने की स्थिति में भी 'मातृ' शब्द के 'ऋ' की 'इ' हो जाती है। जैसे मातृणाम् माइण।।
मातृ-गृहम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप माइ-हरं और माउ-हरं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त् का लोप; १-१३५ से आदि 'ऋ' की विकल्प से 'इ'; और शेष 'हर की साधनिका सूत्र-संख्या १-१३४ में वर्णित 'हर' रूप के अनुसार जानना। द्वितीय रूप 'माउ-हरं' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३४ में की गई है। ___ मातृणाम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माइणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३५ से आदि 'ऋ' की 'इ'; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में स्त्रीलिंग में आम्' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से 'आम्' प्रत्यय अर्थात् 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होने के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' और १-२७ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय पर विकल्प से अनुस्वार की प्राप्ति होकर माईणं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१३५।।
उदूदोन्मृषि ॥१-१३६।। मृषा शब्दे ऋत उत् ऊत् औञ्च भवति।। मुसा।। मूसा मोसा। मुसा-वाओ। मूसा-वाओ। मोसा-वाओ।
अर्थः-मूषा शब्द में रही हुई 'ऋ' का 'उ' अथवा 'ऊ' अथवा 'ओ' होता है। जैसे-मृषा-मुसा अथवा मूसा अथवा मोसा। मृषा-वाद: मुसा-वाओ अथवा मूसा-वाओ अथवा मोसा-वाओ।।
मापुर
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