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110 प्राकृत व्याकरण
मृषा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप क्रम से मुसा, मूसा और मोसा होता है। इनमें सूत्र - संख्या १ - १३६ से 'ऋ' का क्रम से 'उ' 'ऊ' और 'ओ' और १ - २६० से 'ष्' का 'स्' होकर क्रम से मुसा, मूसा और मोसा रूप सिद्ध हो जाता है।
मृषावादः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप मुसावाओ; मूसावाओ; और मोसा-वाओ होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १-१३६ से 'ऋ' के क्रम से और विकल्प 'उ'; 'ऊ' और 'ओ' १ - २६० से 'ष्' का 'स्'; १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से और विकल्प से मुसावाओ, मूसावाओ और मोसा-वाओ रुप सिद्ध हो जाते हैं ॥१- १३६ ।। इदुतौवृष्ट- वृष्टि - पृथङ् मृदंग - नप्तृके
।। १ - १३७ ।।
एषु ऋत इकारोकारौ भवतः । विट्ठो वुट्टो । विट्ठी वुट्टी | पिहं पुहं मिहंगो मुइंगो । नत्तिओ नत्तुओ ।। अर्थः-वृष्ट, वृष्टिः पृथक; मृदंग और नप्तृक में रही हुई 'ऋ' की 'इ' और 'उ' क्रम से होते हैं। जैसे:- वृष्टः - विट्टो और वुट्टो | वृष्टिः- विट्ठी और वुट्टी | पृथक् = पिहं और पुहं । मृदंड्गः = मिइंगो और मुइंगो । नप्तृकः - नत्तिओ और नत्तुओ ||
वृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रुप विट्टो और वुट्टो होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १- १३७ से 'ऋ' की विकल्प से अथवा क्रम से 'इ' और 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विट्ठो और वुट्ठो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
वृष्टिः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रुप विट्ठी और वुट्टी होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १३७ से 'ऋ' की विकल्प से अथवा क्रम से 'इ' और 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; २-९० प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्' और प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर विट्ठी और वुट्ठी रूप सिद्ध हो जाते हैं।
पिहं अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २४ में की गई है।
पृथक् संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप पुह होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१३७ से 'ऋ' का 'उ'; १-१८७ से 'थ' का'ह'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'क्' का लोप और १-२४ से आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर पुहं रूप सिद्ध होता है।
मुङ्गा रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-४६ में की गई है।
मृदंग: संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रुप मिइङ्गो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३७ से 'ऋ' की 'इ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; १ - ४६ से शेष 'अ' की 'इ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मिइंगो' रूप सिद्ध हो जाता है।
नप्तृकः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रुप नत्तिओ और नत्तुओ होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'प्' का लोप; १-१३७ से 'ऋ' की क्रम से और विकल्प से 'इ' और 'उ'; २-८९ से 'त्' का द्वित्व 'त्त'; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से नत्तिओ एवं नत्तुओ रूप सिद्ध हो जाते हैं । ।१ - १३७ ।।
वा बृहस्पतौ ।। १-१३८ ।। बृहस्पति शब्दे ऋत इदुतौ वा भवतः । बिहप्फई बुहप्फई। पक्षे बहप्फई |
अर्थ:- बृहस्पति शब्द में रही हुई 'ऋ'' 'विकल्प से एवं क्रम से 'इ' और 'उ' होते हैं। जैसे- बृहस्पतिः - बिहप्फई और बुहप्फई। पक्ष में बहप्फई भी होता है।
बृहस्पतिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बिहप्फई, बुहप्फई और बहप्फई होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १३८
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