SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 111 से 'ऋ' की क्रम से और विकल्प से 'इ' और 'उ'; तथा पक्ष में १-१२३ से 'ऋ' का 'अ'; २-५३ से 'स्प' का 'फ' २-८९ से प्राप्त 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-९० से प्राप्त पुर्व 'फ्का 'प्'; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर क्रम से बिहप्फई; बुहप्फई और पक्ष में वैकल्पिक रूप से बहप्फई रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१३८।। इदेदोद्वन्ते ॥ १-१३९ ॥ वृन्त शब्दे ऋत इत् एत् ओच्च भवन्ति। विष्टं वेण्टं वोण्टं।। __ अर्थः-वृन्त शब्द में रही हुई 'ऋ' की 'इ'; 'ए'; और 'ओ' क्रम से एवं विकल्प से होते हैं। जैसे वृन्तम्-विण्टं, वेण्टं अथवा वोण्टं। वृन्तम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप विण्ट, वेण्टं और वोण्टं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१३९ से 'ऋ' की क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'इ' 'ए' और 'ओ'; २-३१ से संयुक्त 'न्त' का ‘ण्ट'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से विण्टं, वेण्टं और वोण्ट रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१३९।। रिः केवलस्य ॥ १-१४०।। केवलस्य व्यञ्जने नासंपृक्तस्य ऋतो रिरादेशो भवति॥ रिद्धी। रिच्छो।। अर्थः-किसी भी शब्द में यदि 'ऋ' किसी अन्य व्यञ्जन के साथ जुडी हुई नहीं हो, अर्थात् स्वतंत्र रूप से रही हुई हो तो उस 'ऋ' के स्थान पर 'रि' का आदेश होता है। जैसे-ऋद्धिः-रिद्धी। ऋक्षः रिच्छो।। रिद्धी शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८ में की गई है। ऋक्षः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रिच्छो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४० से 'ऋ' की 'रि'; २-१९ से 'क्ष' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च' और २-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिच्छो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१४०।। ऋणर्वृषभत्वृषौ वा ।। १-१४१ ।। ऋण ऋजु ऋषभऋतु ऋषिषु ऋतो रिर्वा भवति।। रिणं अण। रिज्जू उज्जू रिसहो उसहो। रिऊ उऊ। रिसी इसी। अर्थः-ऋण; ऋजु, ऋषभ; ऋतु और ऋषि शब्दों में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से 'रि' होती है। जैसे-ऋणम्-रिणं अथवा अणं। ऋजुः-रिज्जू अथवा अज्जू। ऋषभः-रिसहो अथवा उसहो। ऋतुः-रिऊ अथवा उऊ। ऋषिः-रिसी अथवा इसी।। ऋणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रिणं अथवा अणं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; ३-५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रिणं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप अणं में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ' और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् जानना। ऋजुः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप रिज्जू अथवा उज्जू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; २-८९ से 'ज्' का द्वित्व 'ज्ज्' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर रिज्जू रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; शेष साधनिका प्रथम रूपवत् जानना। ऋषभः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रिसहो अथवा उसहो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-४१ से 'ऋ' की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy