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________________ 108 : प्राकृत व्याकरण 'त्' और 'क्' का लोप; १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भाउओ रूप सिद्ध हो जाता है। पितृकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' और 'क्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ' ; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिउओ रूप सिद्ध हो जाता है। पृथ्वी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुहुवी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; २-११३ से अन्त्य व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में 'उ' की प्राप्ति; १ - १९८७ से 'थ्' का 'ह' होकर पुहुवी रूप सिद्ध हो जाता है ।।१ - १३१ ।। निवृत्त - वृन्दारके वा ।। १-१३२।। अनयोर्ऋत उद् वा भवति ।। निवुत्तं निअतं । वुन्दारया वन्दारया ।। अर्थः- निवृत्त और वृन्दारक इन दानों शब्दों में रही हुई 'ऋ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे निवृत्तम् = निवुत्तं अथवा निअत्तं । वृन्दारकाः = वुन्दारया अथवा वन्दारया ।। निवृत्तम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप निवुत्तं और निअत्तं होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र- संख्या १-१३२ 'ऋ' का विकल्प से 'उ'; ३ - २५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निवुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'व्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर निअत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। वृन्दारकाः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप वुन्दारया और वन्दारया होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-१३२ 'ऋ' का विकल्प से 'उ'; १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' का 'य'; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और प्राप्त प्रत्यय का लोप ; तथा ३ - १२ से अन्त्य स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ' होकर वुन्दारया रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर वन्दारया रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-१३२ ॥ वृषभे वा वा ।। १-१३३।। वृषभे ऋतो वेन सह उद् वा भवति ।। उसहो वसहो ।। अर्थः- वृषभ शब्द में रहीं हुई 'ऋ' का विकल्प से 'व्' के साथ 'उ' होता है। अर्थात् 'व्' व्यञ्जन सहित 'ऋ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे - वृषभ:-उसहो और वसहो। इस प्रकार विकल्प पक्ष होने से प्रथम रूप में 'वृ' का 'उ' हुआ है और द्वितीय रूप में केवल 'ऋ' का 'अ' हुआ है। उसहो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १३१ में की गई है। वसा रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- १२६ में की गई है । । १ - १३३ ।। गौणान्त्यस्य ।।१-१३४॥ गौण शब्दस्य योन्त्य ऋत् तस्य उद् भवति ।। माउ - मण्डलं । माउ - हरं । पिउ - हरं । माउ- सिआ । पिउ - सिआ । पिउ - वणं । पिउ - वई ॥ अर्थः-दो अथवा अधिक शब्दों से निर्मित संयुक्त शब्द में गौण रूप से रहे हुए शब्द के अन्त में यदि 'ऋ' हो तो उस 'ऋ' का 'उ' होता है। जैसे - मातृ - मण्डलम् - माउ - मण्डलं । मातृ - गृहम् = माउ - हरम् । पितृ-गृहम्-पिउ-हरं । मातृ-ष्वसा=माउ-सिआ। पितृष्वसा पिउ- सिआ । पितृ-वनम् पिउ वणं । पितृ-पतिः = पिउ-वई ।। मातृ-मण्डलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउ-मण्डलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का 'उ'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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