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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 271
ही दीर्घ स्वर वाले हैं; ये उदाहरण अलाक्षणिक कोटि के समझे जाँय । पार्श्वम् = पासं । । शीर्षम् = सीसं । । ईश्वरः = ईसरो ।। द्वेष्यः-वेसो।। लास्यम्-लासं । आस्यम्-आसं । प्रेष्य:- पेसो ।। अवमाल्यम् = ओमालं ।। आज्ञा आणा ।। आज्ञप्तिः- आणत्ती।। आज्ञपनं आणवणं ।। इन उदाहरणों में दीर्घ स्वर के आगे वर्ण-विशेष की लोप स्थिति से शेष वर्ण की स्थिति अथवा आदेश प्राप्त वर्ण की स्थिति होने पर भी उनमें द्विर्भाव की स्थिति नहीं है ।
अनुस्वार संबंधी उदाहरण निम्नोक्त हैं। प्रथम ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं; जिनमें अनुस्वार की प्राप्ति व्याकरण के नियम - विशेष से हुई है; ऐसे उदाहरण लाक्षणिक कोटि के जानना । त्र्यस्त्रम्-तंसं । इस उदाहरण में लोप स्थिति है; शेषवर्ण 'स्' की उपस्थिति अनुस्वार के पश्चात् रही हुई है; अतः इस शेष वर्ण 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति नहीं हुई है । यों अन्य लाक्षणिक उदाहरण भी समझ लेना । अब ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं; जिनमें अनुस्वार की स्थिति प्रकृति रूप से ही उपलब्ध हैं; ऐसे उदाहरण अलाक्षणिक कोटि के गिने जाते हैं। संध्या - संझा | विंध्य :- विंझो और कांस्यालः- कंसालो ।। प्रथम दो उदाहरणों में अलाक्षणिक रूप से स्थित अनुस्वार के आगे आदेश रूप से प्राप्त वर्ण 'झ' की उपस्थिति विद्यमान है; परन्तु इस 'झ' वर्ण को पूर्व में अनुस्वार के कारण से द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति नहीं हुई है। तृतीय उदाहरण में 'य्' का लोप होकर अनुस्वार के आगे शेष वर्ण के रूप में 'स' की उपस्थिति मौजूद है; परन्तु पूर्व में अनुस्वार होने के कारण से इस शेष वर्ण 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति नहीं हुई है । यों अन्यत्र भी जान लेना। इन्हें अलाक्षणिक कोटि के उदाहरण जानना; क्योंकि इनमें अनुस्वार की प्राप्ति व्याकरणगत नियमों से नहीं हुई है; परन्तु प्रकृति से ही स्थित है ||
'क्षिप्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छूढो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १२७ से संपूर्ण 'क्षिप्त' शब्द के स्थान पर ही 'छूढ' रूप आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छूढो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नीसासो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ९३ में की गई है।
'स्पर्श' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'फासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- १८२ से स्पर्श शब्द के स्थान पर ही 'फास' रूप आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'फासो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पार्श्वम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पास' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से रेफ रूप 'र्' का और 'व्' लोप; १ - २६० से 'श' का 'स'; २-८९ से शेष 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति होनी चाहिये थी; परन्तु २- ९२ से इस 'द्विर्भाव-स्थिति का निषेध; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पास' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शीर्षम् ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सीसं होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से दोनों 'श' 'ष' का 'स' 'स'; २- ७९ से 'र्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सीसं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इसरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ८४ में की गई है।
'द्वेष्यः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'द्' का लोप; २- ७८ से 'य्' का लोप; १ - २६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लास्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लास' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'लास' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आस्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आस' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; ३ - २५ से
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