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________________ 270 : प्राकृत व्याकरण में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से 'ख' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'नक्खा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(नखाः=) नहा में सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति आर शेष साधनिका (प्रथमा बहुवचन के रूप में) प्रथम रूप के समान ही होकर 'नहा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कपि-ध्वजः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कइद्धओ' और 'कई-धओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या; १-१८७ से 'प्' का लोप; २-७९ से 'व्का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' को 'द्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'कइ-द्धओ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(कपि-ध्वज ) कइ-धओ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; २-७९ से 'व्' का लोप; १-१७७ से ज् का लोप; और ३-२ से प्रथम रूप के समान ही 'ओ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'कइ-धओ' भी सिद्ध हो जाता है। 'ख्यातः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खाआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-९०।। दीर्घ वा ।। २-९१॥ दीर्घ शब्दे शेषस्य घस्य उपरि पूर्वो वा भवति ।। दिग्घो दीहो।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'दीर्घ' के प्राकृत-रूपान्तर में नियमानुसार रेफ रूप 'र' का लोप होने के पश्चात् शेष व्यञ्जन 'घ' के पूर्व में ('घ' के) पूर्व व्यञ्जन 'र' की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती हैं जैसे-दीर्घः दिग्घो अथवा दीहो।। ___ 'दीर्घः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दिग्घो' और 'दीहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-९१ से 'घ' के पूर्व में 'ग्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दिग्घो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(दीर्घः= ) दीहो में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथम रूप के समान ही 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'दीहो' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-९१।। न दीर्घानुस्वारात् ।। २-९२॥ दीर्घानुस्वाराभ्यां लाक्षणिकाभ्यामलाक्षणिकाभ्यां च परयोः शेषादेशयोर्द्वित्वं न भवति।। छूढो। नीसासो। फासो॥ अलाक्षणिक। पार्श्वम्। पास।। शीर्षम्। सीस।। ईश्वरः। ईसरो। द्वेष्यः। वेसो।। लास्यम्। लास।। आस्यम्। आसं।। प्रेष्यः। पेसो।। अवमाल्यम्। ओमाल।। आज्ञा। आणा। आज्ञप्तिः। आणत्ती।। आज्ञपनं। आणवणं।। अनुस्वारात्। व्यस्त्रम्। तसं अलाक्षणिक। संझा। विंझो। कंसालो। अर्थः-यदि किसी संस्कृत-शब्द के प्राकृत-रूपान्तर में किसी वर्ण में दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार रहा हुआ हो और उस दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार की प्राप्ति चाहे व्याकरण के नियमों से हुई हो अथवा चाहे उस शब्द में ही प्रकृति रूप से ही रही हुई हो और ऐसी स्थिति में यदि इस दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार के आगे नियमानुसार लोप हुए वर्ण के पश्चात् शेष रह जाने वाला वर्ण आया हुआ हो अथवा आदेश रूप से प्राप्त होने वाला वर्ण आया हुआ हो तो उस शेष वर्ण को अथवा आदेश-प्राप्त वर्ण को द्वित्व-भाव की प्राप्ति नहीं होगी। अर्थात् ऐसे वर्णो का द्वित्व नहीं होगा। दीर्घ स्वर संबंधी उदाहरण इस प्रकार है:- क्षिप्तः छूढो। निःश्वास नीसासो और स्पर्शः फासो।। इन उदाहरणों में स्वर में दीर्घता व्याकरण के नियमों से हुई है; इसलिये ये उदाहरण लाक्षणिक कोटि के हैं। अब ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं; जो कि अपने प्राकृतिक रूप से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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