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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 361 'जस्' की प्राप्ति होकर प्राकृत में लोप; और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'स' के अन्त्य स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर संबोधन बहुवचन में 'पुरिसा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'बहु-वल्लभ' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बहु-वल्लह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय 'ओ' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'बहु-वल्लह' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०२।।
ओ सूचना-पश्चात्तापे ।। २-२०३।। ओ इति सूचना पश्चात्तापयोः प्रयोक्तव्यम्॥ सूचनायाम्। ओ अविणय-तत्तिल्ले॥ पश्चात्तापे। ओ न मए छाया इत्ति आए।। विकल्पे तु उतादेशेनैवीकारेण सिद्धम्। ओ विरएमि नहयले।। ___ अर्थः- प्राकृत-साहित्य में 'ओ' अव्यय 'सूचना' अर्थ में और 'पश्चाताप' अर्थ में प्रयुक्त होता है। सूचना' विषयक उदाहरण इस प्रकार है:-ओ अविनय-तृप्तिपरे!=ओ अविणय-तत्तिल्ले अर्थात अरे! (मैं तुम्हें सूचित करता हूँ कि) (तू) अविनय-शील (है)। ‘पश्चाताप' विषयक उदाहरण- ओ! (खेद-अर्थे) न मया छाया एतावत्यां=ओ न मए छाया इतिआए अर्थात् अरे! इतना (समय) हो जाने पर (भी) (उसकी) छाया (तक) मुझे नहीं (दिखाई दी)। वैकल्पिक' अर्थ में जहाँ 'ओ' आता है; तो वह प्राप्त 'ओ' संस्कृत अव्यय विकल्पार्थक 'उत अव्यय' के स्थान पर आदेश रूप होता है; जैसा कि सूत्र संख्या १-१७२ में वर्णित है। उदाहरण इस प्रकार है:- उत विरचयामि नभस्तले-ओ विरएमि नहयले। इस उदाहरण में प्राप्त 'ओ' विकल्पार्थक है न कि 'सूचना एवं पश्चाताप' अर्थक; यों अन्यत्र भी तात्पर्य-भेद समझ लेना चाहिये।
'ओ' अव्यय-प्राकृत-साहित्य में रूढ रूपक और रूढ-अर्थक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'अविनय-तृप्तिपरे' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अविणय-तत्तिल्ले' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अकी प्राप्ति २-७७ से'' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'प्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; २-१५९ से 'मत्' अर्थक 'पर' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्रत्यय 'इल्ल' के पूर्व में स्थित 'त्ति' के 'इ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'त्त्' में प्रत्यय 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३-३१ से प्राप्त पुल्लिंग रूप 'तत्तिल्ल' में स्त्रीलिंग-रूप निर्माणार्थ 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-४१ से संबोधन के एकवचन में प्राप्त रूप 'तत्तिल्ला' के अन्त्य स्वर 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'अविणय-तत्तिल्ले' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'छाया' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४९ में की गई है। 'मए' की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९९ में की गई है। .
'एतावत्यां' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इतिआए' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१५६ से 'एतावत्' के स्थान पर 'एत्ति आदेश; ३-३१ से स्त्रीलिंग-अर्थ में 'इत्तिअ' के अन्त में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२९ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थानीय रूप 'या' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'इतिआए' रूप सिद्ध हो जाता है। 'उत' ='ओ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७२ में की गई है।
"विरचयामि' संस्कृत क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विरएमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' का लोप; ४-२३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'अ विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१५८ से विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विरएमि रूप सिद्ध हो जाता है।
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