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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 143 सवम संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'व'को दित्व'व्व' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसिक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनस्वार होकर सव्वं रूप सिद्ध हो जाता है।
नक्कंचरो रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
कालः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कालो रूप सिद्ध हो जाता है।
गन्धः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गन्धो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गन्धा रूप सिद्ध हो जाता है। ___चोरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोरो रूप सिद्ध हो जाता है। __जारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जारी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जारो रूप सिद्ध हो जाता है।
तरू: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तरू होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है।
दवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दवो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पापम्: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पावं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पावं रूप सिद्ध हो जाता है।
वण्णो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४२ में की गई है।
सुखकरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप सुहकरो और सुहयरा होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' का 'ह' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सुहकरो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप सुहयरा में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से रूप प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सुहयरो भी सिद्ध हो जाता है।
आगमिकः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप आगमिओ और आयमिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप आगमिओ में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप आगमिओ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप आयमिओ में सूत्र-संख्या १-१७७ की वृत्ति से वैकल्पिक-विधान के अनुस्वार 'ग्' का लोप; १-१८० से शेष' को 'य' की प्राप्ति १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप आगमिओ भी सिद्ध हो जाता है।
जलचरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जलचरो और जलयरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप जलचरो में सूत्र-संख्या ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जलचरा सिद्ध हो जाता है।
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