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142 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति; १ - २५ से 'ञ्' को अनुस्वार की प्राप्ति; १ - १७७ से 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धणंजओ रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विषंतपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विसंतवो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'द्' का लोप ; १ - २६० से 'ष' को 'स' की प्राप्ति; १ - २३१ से 'प' को 'व' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विसंतओ रूप सिद्ध हो जाता है।
पुरंदरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुरंदरों होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुरंदरो रूप सिद्ध हो जाता है।
संवृतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संवुडो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१३१ 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; १ - २०६ से 'त' को 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संवुडो रूप सिद्ध हो जाता है।
संवरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संवरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संवरो रूप सिद्ध हो जाता है।
अर्कः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अक्को होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अक्को' रूप सिद्ध हो जाता है।
वर्ग: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वग्गो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २ - ८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अच्चो' रूप सिद्ध हो जाता है।
अर्चः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अच्चो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७८ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अच्चो' रूप सिद्ध हो जाता है।
वज्रमः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वज्जं होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वज्जं रूप सिद्ध हो जाता है।
धूर्तः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप धुत्तो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धुत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
उद्दामः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप उद्दामो होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उद्दामो रूप सिद्ध हो जाता है।
विप्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विप्पो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विप्पो रूप सिद्ध हो जाता है।
कार्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कज्जं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'आ' को हस्व 'अ' की प्राप्ति; २-२४ से 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसिकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कज्जं रूप सिद्ध हो जाता है।
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