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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 41 चाहिये। जैसे कि आँख अर्थक शब्द:- 'अज्ज वि सा सवइ ते अच्छी' अर्थात वह (स्त्री) आज भी तुम्हारी (दोनों) आंखों को भाप देती है; अथवा सौगंध देती है। यहां पर अच्छी' को पुल्लिंग मानकर द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय जोड़ा गया है। 'नच्चादियाइँ तेणम्ह अच्छीई' अर्थात् उसके द्वारा मेरी आँखें नचाई गई। यहाँ पर 'अच्छीइं लिखकर 'अच्छी' शब्द को नपुंसक में प्रयुक्त किया गया है। अंजली आदि के पाठ से 'अक्षि' शब्द स्त्रीलिंग में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। जैसे-एसा अच्छी अर्थात् यह आँख। यहां पर अच्छी शब्द स्त्रीलिंग में प्रयुक्त किया गया है।
'चक्खू चक्खूइं' =आंखें। प्रथम रूप प्रथमा बहुवचन के पुल्लिंग का है; जबकि दूसरा रूप प्रथमा बहुवचन के नपुंसकलिंग का है। इसी प्रकार नयणा और नयणाई; लोअणा और लोअणाई; ये शब्द भी आंख वाचक हैं। इनमें प्रथम रूप तो प्रथमा बहुवचन में पुल्लिंग का है; और द्वितीय रूप प्रथमा बहुवचन में नपुंसकलिंग का है।
वचन आदि के उदाहरण इस प्रकार है-'वयणा' और 'वयणाई'; अर्थात वचन। प्रथम रूप पुल्लिंग में प्रथमा बहुवचन का है और द्वितीय रूप नपुंसकलिंग में प्रथमा बहुवचन का है। विज्जुणा, विज्जूए अर्थात् विद्युत से। प्रथम रूप पुल्लिंग में तृतीया एकवचन का है; और द्वितीय रूप स्त्रीलिंग में तृतीया एकवचन का है। कुलो कुलं अर्थात् कुटुम्ब। प्रथम रूप पुल्लिंग में प्रथमा एकवचन का है और द्वितीय रूप नपुंसकलिंग में प्रथमा एकवचन का है। छन्दो-छन्दं अर्थात् छन्द। यह भी क्रम से पुल्लिंग और नपुंसकलिंग है; तथा प्रथमा एकवचन के रूप हैं। __'माहप्पो माहप्पं' अर्थात माहात्म्य। यहां पर भी क्रम से पुल्लिंग और नपुंसकलिंग है; तथा प्रथमा एकवचन के रूप हैं। 'दुक्खा दुक्खाई अर्थात् विविध दुःख। ये भी क्रम से पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में लिखे गये हैं; तथा प्रथमा बहुवचन के रूप हैं। 'भायणा भायणाइंभाजन बर्तन। प्रथम रूप पुल्लिंग में और द्वितीय रूप नपुंसकलिंग में है। दोनों की विभक्ति प्रथमा बहुवचन है। यों उपरोक्त वचन आदि शब्द विकल्प से पुल्लिंग भी होते हैं और नपुंसकलिंग भी। किन्तु नेत्ता और नेत्ताई अर्थात् आंख तथा कमला और कमलाई अर्थात् कमल इत्यादि शब्दों के लिंग संस्कृत के समान ही होते हैं; अतः यहां पर वचन आदि के साथ इनकी गणना नहीं की गई है।
'अद्य' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'अज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'ध' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति होकर 'अज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'सा' संस्कृत सर्वनाम स्त्रीलिंग शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सा' ही होता है। 'सा' सर्वनाम का मूल शब्द 'तद्' है। इसमें सूत्र संख्या ३-८६ से 'तद्' को 'स' आदेश हुआ। ३-८७ की वृत्ति में उल्लिखित 'हेम व्याकरण २-४-१८ से 'आत्' सत्र से स्त्रीलिंग में 'स' का 'सा' होता है। तत्पश्चात ३-३३ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के योग से 'सा' रूप सिद्ध होता है।
'शपति' संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप 'सवई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-१३९ से 'ति' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम पुरुष के एकवचन में वर्तमान काल का रूप 'सवइ' सिद्ध हो जाता है।
'तव' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ते' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९९ से 'तव' के स्थान पर 'ते' आदेश होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'अक्षिणी' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अच्छी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' का 'छ' २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; १-३३ से 'अच्छि' शब्द को पुल्लिंग पद की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में शस् प्रत्यय की प्राप्ति होकर उसका लोप; और ३-१८ से अतिम स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होकर 'अच्छी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नर्त्तिते' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नच्चावियाइँ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर
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