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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 65
'परस्परम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'परोप्पर* होता है। इसमें सूत्र संख्या १-६२ से 'द्वितीय-अ' का 'ओ'; २-७७ से ‘स्' का लोप; २ - ८९ से द्वितीय 'प' का द्वित्व 'प्प' ; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'परोप्परं रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-६२ ।। वार्षौ ।। १-६३ ।।
अर्पयतो धातो आदेरस्य ओत्वं वा भवति ।। ओप्पेइ अप्पेइ । ओप्पिअं अप्पिअं । ।
अर्थः- ‘अर्पयति' धातु में आदि 'अ' का विकल्प से 'ओ' होता है। जैसे- अर्पयति = ओप्पेइ और अप्पे | अर्पितम् = ओप्पिअं और अप्पिअं ।।
'अर्पयति' संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया पद है। इसके प्राकृत रूप 'ओप्पेइ' 'अप्पेइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६३ से आदि 'अ' का विकल्प से 'ओ'; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; ३ -१४९ से प्रेरणार्थक में 'णि' प्रत्यय के स्थान पर यहां पर प्राप्त 'अय' के स्थान पर 'ए'; और ३- १३९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष में एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' होकर 'ओप्पेइ' और 'अप्पेइ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अर्पितम्' संस्कृत भूत कृदन्त क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप 'ओप्पिअ' और 'अप्पिअं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६३ से आदि 'अ' का विकल्प से 'ओ' ; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; ३ - १५६ से भूत कृदन्त के 'त' प्रत्यय के पहिले आने वाली 'इ' की प्राप्ति मौजूद ही है; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'ओप्पि ' 'अप्पिअ' रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-६३ ।।
स्वपावुच्च ।। १-६४ ॥ स्वपितौ धातौ आदेरस्य ओत् उत् च भवति ।। सोवइ सुवइ ।।
अर्थः- ‘स्वपिति' धातु में आदि 'अ' का 'ओ' होता है और 'उ' भी होता है। जैसे- स्वपिति=सोवइ और सुवइ।।
'स्वपिति' संस्कृत क्रियापद है; इसका धातु ष्वप् है। इसका प्राकृत रूप 'सोवइ' और 'सुवइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त 'प्' में 'अ' का संयोजन; १ - २६० से 'ष्' का 'स्'; २- ७९ से 'व' का लोप; १ - २३१ से 'प्' का 'व्'; १-६४ से आदि 'अ' का 'ओ' और 'उ' क्रम से ३ - १३९ से वर्तमान काल प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' होकर क्रम से 'सोवइ' और 'सुवइ' रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-६४।। १-६५ ।।
नात्पुनर्यादाई वा ॥
नञः परे पुनः शब्दे आदेरस्य 'आ' 'आइ' इत्यादेशौ वा भवतः । न उणा ।। न उणाइ । पक्षे न उण। न उणो ।। केवलस्यापि दृश्यते। पुणाइ।।
अर्थः-'नञ्' अव्यय के पश्चात् आये हुए 'पुनर्' शब्द में आदि 'अ' को 'आ' और 'आइ' ऐसे दो आदेश क्रम से और विकल्प से प्राप्त होते हैं। जैसे- न पुनर्-न उणा और न उणाइ । पक्ष में- न उण और न उणो भी होते हैं। कहीं-कहीं पर 'न' अव्यय नहीं होने पर भी 'पुनर्' शब्द में विकल्प रूप से उपरोक्त आदेश 'आइ' देखा जाता है। जैसे- पुनर- पुणाइ ।।
'न पुनः' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप 'न उणा'; 'न उणाइ;' 'न उण;' और 'न उणा' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; १ - २२८ से पुनर् के 'न' का 'ण'; १-११ से विसर्ग याने 'र्' का लोप; १-६५ से प्राप्त 'ण' के 'अ' को क्रम से और विकल्प से 'आ' एवं 'आइ' आदेशों की प्राप्ति होकर न उणा; न उणाइ; और न उण रूप सिद्ध हो जाते हैं । एवं पक्ष में १ - ११ के स्थान पर १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'न उणा' रूप सिद्ध हो जाता है।
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