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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 13 रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या (हेम) ३-३-६ से मूल धातु 'इण्' की प्राप्ति; संस्कृतीय विधानानुसार मूल धातु 'इण्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'ण्' की इत्संज्ञा होकर लोप; ४-२३७ से प्राप्त धातु 'इ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है। 'हृदयम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिअयं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'हिअयं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कवीन्द्राणाम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कइन्दाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व्' का लोप; १-४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; ३ - १२ से प्राप्त प्राकृत रूप 'कइन्द' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-६ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में 'आम्' प्रत्यय के स्थानीय रूप 'णाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'कइन्दाण' रूप सिद्ध हो जाता है। १-७।। स्वरस्योद्वृत्ते ।। १-८।। व्यञ्जन-संपृक्तः स्वरो व्यञ्जने लुप्ते योवशिष्यते स उवृत्त इहोच्यते । स्वरस्य उद्घृत्ते स्वरे परे संधिर्न भवति । विससिज्जन्त-महा-पसु - दंसण-संभम-परोप्परारूढा । गयणे च्चिअ गन्ध-उडिं कुणन्ति तुह कउल-णारीओ ॥ निसा - अरो । निसि - अरो । रयणी- अरो । मणुअत्तं ।। बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । कुम्भ-आरो कुम्भारो । सु- उरिसो सूरिसो ।। क्वचित् संधिरेव सालाहणो चक्काओ ।। अतएव प्रतिषेधात् समासे पि स्वरस्य संधौ भिन्नपदत्वम्॥ अर्थ - व्यञ्जन में मिला हुआ स्वर उस समय में 'उद्वृत्त-स्वर' कहलाता है; जबकि वह व्यञ्जन लुप्त हो जाता है और केवल 'स्वर' ही शेष रह जाता है। इस प्रकार अवशिष्ट 'स्वर' की संज्ञा 'उद्वृत्त स्वर' होती है। ऐसे उद्वृत्त स्वरों के साथ में पूर्वस्थ स्वरों की संधि नहीं हुआ करती है। इसका तात्पर्य यह है कि उद्वृत्त स्वर अपनी स्थिति को ज्यों की त्यों बनाये रखते हैं और पूर्वस्थ रहे हुए स्वर के साथ संधि-योग नहीं करते हैं। जैसे कि मूल गाथा में ऊपर 'गन्ध-पुटीम्' प्राकृत रूपान्तर में 'गन्ध - उडिं' होने पर 'ध' में स्थित 'अ' की 'पुटीम्' में स्थित 'प्' का लोप होने पर उद्वृत्त स्वर रूप 'उ' के साथ संधि का अभाव प्रदर्शित किया गया है। यों 'उद्वृत्त-स्वर' की स्थिति को जानना चाहिये । ऊपर सूत्र की वृत्ति में उद्धृत प्राकृत- गाथा का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार है : विशस्यमान - महा पशु-दर्शन- संभ्रम - - परस्परारूढाः । गगने एव गन्ध-पुटम् कुर्वति तव कौल - नार्यः ॥ अर्थ :- कोई एक दर्शक अपने निकट के व्यक्ति को कह रहा है कि -' तुम्हारी ये उच्च संस्कारों वाली स्त्रियां इन बड़े-बड़े पशुओं को मारे जाते देख कर घबडाई हुए एक दूसरी की ओट में याने परस्पर में छिपने के लिए प्रयत्न करती हुई और अपने चित्त को इस घृणामय वीभत्सकार्य से हटाने के लिये) आकाश में ही (अर्थात निराधार रूप से ही मानों) गन्ध-पात्र (की रचना करने जैसा प्रयत्न) करती है (अथवा कर रही है) काल्पनिक चित्रों की रचना कर रही है। उद्वृत्त-स्वरों की संधि-अभाव- प्रदर्शक कुछ उदाहरण इस प्रकार है- निशाचरः - निसा - अरो; निशाचर= निसि - अरो; रजनी - चर:- रयणी - अरो; मनुजत्वम् = मणुअत्तं । इन उदाहरणों में 'च्' और 'ज्' का लोप होकर 'अ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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