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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 79 किंशके वा ।। १-८६॥ किंशुक शब्दे आदेरित एकारो वा भवति।। केसुअंकिंसुआ। अर्थ :- किंशुक शब्द में आदि 'इ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-किंशुकम्-केसुअं और किसु। केसुअं और किंसुअं की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है ।।१-८६।। मिरायाम् ॥ १-८७॥ मिरा शब्दे इत एकारो भवति।। मेरा।। अर्थः- मिरा शब्द में रही हुई 'इ' का 'ए' होता है। जैसे मिरा-मेरा।। मिरा देशज शब्द है। इसका प्राकृत रूप मेरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८७ से 'इ' का 'ए' होकर 'मेरा' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-८७|| पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्रा-बिभीतकेष्वत् ।।१-८८॥ एषु आदेरितोकारो भवति। पहो। पुहई। पुढवी। पडंसुआ। मूसओ। हलद्दी। हलद्दा। बहेडओ।। पन्थं किर देसितेति तु पथि शब्द समानार्थस्य पन्थ शब्दस्य भविष्यति।। हरिद्रायां विकल्प इत्यन्ये। हलिही हलिहा।।। ___ अर्थ- पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुत-मूषिक-हरिद्रा, और बिभीतक; इन शब्दों मे रही हुई आदि 'इ' का 'अ' होता है। जैसे-पथिन् (पन्था)=पहो; पृथिवी-पुहई और पुढवी। प्रतिश्रुत्=पडंसुआ।। मूषिक: मूसओ।। हरिद्रा-हलद्दी और हलद्दा।। बहेडओ।। पन्थ शब्द का जो उल्लेख किया गया है। वह पथिन शब्द का नहीं बना हआ है। किन्त 'मार्ग-वाचक' और यही अर्थ रखने वाले 'पन्थ' शब्द से बना हुआ है। ऐसा जानना। कोई-कोई आचार्य 'हरिद्रा' शब्द में रही हुई 'इ' का 'अ' विकल्प रूप से मानते हैं। जैसे-हरिद्रा-हलिद्दी और हलद्दा ये दो रूप उपरोक्त हलिद्दी और हलद्दा से अधिक जानना। इन चारों रूपों में से दो रूपों में तो 'इ' है और दो रूपों में 'अ' है। यों वैकल्पिक-व्यवस्था जानना। पन्था संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पहो होता है। इसका मूल शब्द पथिन् है। इसमें सूत्र-संख्या १-८८ से 'इ' का 'अ'; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १-११ से 'न्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पहो' रूप सिद्ध हो जाता है। पृथिवी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पुहई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-८८ से आदि 'इ' का 'अ'; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १-१७७ से 'व' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का दीर्घ याने 'ई' का 'ई' होकर 'पुहई रूप सिद्ध हो जाता है। पृथिवी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पुढवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-२१६ से 'थ' का 'ढ'; १-८८ से आदि 'इ' का 'अ'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का दीर्घ याने 'ई' का 'ई' ही रहकर 'पुढवी' रूप सिद्ध हो जाता है। पडंसुआ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है। भषिक: संस्कत शब्द है। इसका प्राकत रूप मसओ होता है। इसमें सत्र-संख्या १-८८ से 'इ' का 'अ':१-२६० से 'ष' का 'स':१-१७७ से 'क' का लोप: और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मूसओ' रूप सिद्ध हो जाता है। हरिद्रा संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप हलद्दी और हलद्दा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८८ से 'इ' का 'अ'; १-२५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'द' का द्वित्व '६' ३-३४ से 'आ' की विकल्प से 'इ'; और ३-२८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में हलद्दी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में हे० २-४-१८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' होकर हलद्दा' रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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